इन मौन चट्टानों के सामने खड़ा
यह सोचता हूँ ,
कितनी कठोर हैं ये /
जितनी कठोर लगती हैं
क्या उतनी ही?
या कहीं ज्यादा ?
क्या भेद सकेगा कोई इनको?
और फिर मैं देखता हूँ
आकाश की ओर /
बदली छाई है ,
धूप का कतरा नहीं है ।
और फिर क्या देखता हूँ
तोड़ कर प्रस्तर कवच को ,
मोतियों सा झर रहा है ,
दुधिया झरना ।
भूल जाता हूँ मैं
कि
कितने कठोर हैं ये पाषाण खंड ,
कि
मैं इन्हें भेद नहीं सकूँगा ,
कि
बदली है / धुप का कतरा नहीं है ।
याद रह जाता है
मृदु हास्य करता
वो झरना / छलछलाता
वो शीतलता , तरलता
वो सिहरन / अपनापन
धूप सी खिल उठी है हर ओर ।
आज मैंने
इस तरह
महसूस किया है तुमको ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
अरविन्द भटनागर 'शेखर'
Comment
आदरणीया गीतिका जी , बहुत बहुत आभार ।
आ0 राजेश मृदु जी की ही बात दोहराउंगी, अद्भुत है तान्या श्रंखला|
बधाई !!
आदरणीय सौरभ जी , अन्नपूर्णा जी , संजय जी एवं गीत जी आप सभी के स्नेह और उत्साह वर्धन के लिए तहे दिल से आभार ।
'शेखर'
बहुत सुंदर भावनात्मक रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय अरविन्द जी
बहुत सुंदरता से गूँथे हुये भाव अंत तक आते आते मानो सम्मोहित कर लेते है....
सुंदर रचना हेतु सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय अरविंद शेखर जी....
आदरणीय अरविंद भटनागर जी बहुत सुंदर भाव , सुदर संयोजन बधाई आपको ।
आदरणीय अरविन्द भटनागर ’शेखर’ जी,
आपकी प्रस्तुत रचना हाल की मेरी पढ़ी कई-कई सशक्त वैचारिक रचनाओं पर भारी पड़ती है. हर शब्द संतुलित और शब्द-विन्यास अत्यंत संयत ! प्रयुक्त इंगित सार्थक ! उनके प्रभाव सटीक !
आपकी अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
हार्दिक बधाइयाँ.
आप सभी के स्नेह और उत्साह वर्धन के लिए तहे दिल से आभार ।
'शेखर'
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति! आपको हार्दिक बधाई!
किसी पहचानी सी लुप्त सूक्ष्म ऊर्जा को महसूस करना हो तो उसकी आवृति को जीते कई स्थूल अवयव उसे प्रतिबिंबित करते हैं.. एक संवेदनशील मनस उनके प्रति ग्राही होता है...
ऐसी ही संवेदनशीलता हो सुन्दरता से प्रस्तुत करती सफल मर्मस्पर्शी आत्मीय अब्भिव्यक्ति के लिए ह्रदय तल से बधाई आ० अरविन्द भटनागर जी
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