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उठते बैठते बस एक ही ख्याल हुआ

उठते बैठते बस एक ही ख्याल हुआ
क्यूँ जीना भी इस कदर मुहाल हुआ

लुटी आबरू तो चुप हैं सफ़ेद-पोश
ख़ामो ख्वाह की बातों पर बवाल हुआ

जलाता है रावण खुद अपना ही बुत
तमाशा ये देखो हर साल हुआ

जुबां शीरीं और खंज़र हाथ में है
"विश्वास" करना भी अब इक सवाल हुआ

सोचता हूँ बन जाऊं मैं भी नासेह
उतरा जो इस धंधे में मालामाल हुआ

घोटाले बने है सीढी तरक्की की
सियासत का ये फन भी कमाल हुआ

सरताज-ए-कायनात ये वतन मेरा
चंद कमज़र्फों के हाथों कंगाल हुआ


*मौलिक एवं अप्रकाशित*

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Comment by वेदिका on October 7, 2013 at 1:29am

सुंदर कथ्य!!

बहर संलग्न के निवेदन के साथ शुभकामनायें !!


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Comment by Dr.Prachi Singh on October 6, 2013 at 2:56pm

सुन्दर प्रस्तुति प्रवीण वर्मा जी 

सरताज-ए-कायनात ये वतन मेरा 
चंद कमज़र्फों के हाथों कंगाल हुआ.... सही बात 

हार्दिक बधाई 

 

Comment by Praveen Verma 'ViswaS' on October 5, 2013 at 11:20am

आदरणीय वीनस सर , विचारों की बाढ़ जब आती है तो उन्मुक्त होकर आती है. फिर भी मै आगे से ध्यान रखूँगा कि इन पर नियमों का बाँध लगा सकूँ . . . आभार. 

Comment by coontee mukerji on October 5, 2013 at 1:04am

जलाता है रावण खुद अपना ही बुत
तमाशा ये देखो हर साल हुआ.....वाह!.....परवीन भाई रावण मारेगा....ज़रा सम्भलके.

Comment by वीनस केसरी on October 4, 2013 at 11:13pm

सुन्दर प्रयास है भाई ... मूलभूत नियमों पर ध्यान देने की जरूरत है

Comment by MAHIMA SHREE on October 4, 2013 at 10:35pm

जलाता है रावण खुद अपना ही बुत
तमाशा ये देखो हर साल हुआ.... .... क्या बात है ... बहुत ही शानदार बधाई आपको

Comment by Sushil.Joshi on October 4, 2013 at 9:24pm

वाह.... बेहद सुंदर भावों का सम्मिश्रण है प्रवीन भाई जी.... इस नज़्म के लिए बधाई...

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 4, 2013 at 8:33pm

बहुत बहुत शुभकामनाये और बधाईयाँ 

Comment by Meena Pathak on October 4, 2013 at 7:29pm

सुन्दर गज़ल .. बधाई स्वीकारें 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 4, 2013 at 4:33pm

सरताज-ए-कायनात ये वतन मेरा 
चंद कमज़र्फों के हाथों कंगाल हुआ...बिलकुल सहमत हूँ मैं आपसे ....सादर बधाई के साथ 

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