हम क्या हैं
सिर्फ पैसा बनाने की मशीन भर न !
इसके लिए पांच बजे उठ कर
करने लगते हैं जतन
चाहे लगे न मन
थका बदन
ऐंठ-ऊँठ कर करते तैयार
खाके रोटियाँ चार
निकल पड़ते टिफिन बॉक्स में कैद होकर
पराठों की तरह बासी होने की प्रक्रिया में
सूरज की उठान की ऊर्जा
कर देते न्योछावर नौकरी को
और शाम के तेज-हीन सूर्य से ढले-ढले
लौटते जब काम से
तो पास रहती थकावट, चिडचिडाहट,
उदासी और मायूसी की परछाइयां
बैठ जातीं कागज़ के कोरे पन्नों पर....
और आप
ऐसे में उम्मीद करते हैं कि
मैं लिक्खूं कवितायें
आशाओं भरी
ऊर्जा भरी...?
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
चूंकि मैंने दूसरा ड्राफ्ट प्रकाशित किया है, मैं इस नज़्म पर और काम करूँगा...आप सभी का आभार...सादर
आम आदमी की रोज़मर्रा की उबाऊ ज़िंदगी.. जैसे सिर्फ पैसा कमाने की बाध्यता के चलते, किसी रिमोट से जैसे मशीनी मानव चल रहा हो... ऐसे में ह्रदय से संवेदनाओं का मिटता जाना सुन्दरता से प्रस्तुत किया है
अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक शुभकामनाएं
बेहद खूबसूरत रचना के लिए बधाई।
सादर,
विजय निकोर
ज़िंदगी की रफ्तार मे दिन रात की थकान और फिर ज़िंदगी .....
बहुत खूब !!
अति उम्दा रचना है आपकी ! बधाई आपको और उम्मीद बढ़ गयी है ऐसी ही बेहतरीन रचनाये पढने की !
ओह.. !! कविता ने रशे-रेशे की पीर का बथना उजागर कर दिया है. मशीनी ज़िन्दग़ी फ़ैक्ट्री की भट्ठी में अपनी सोच और हुलास को झोंकती रोज़ धुक रही है. और रीतती हुई उम्र ऊब, खीझ, टीस और वही-वहीपन के दर्राते दाँतदार पहियों से निचुड़ रही है. कलम और ज़िन्दग़ी के एक मज़दूर के दर्द और उसकी निराशा को अभिव्यक्त करती इस रचना के लिए बधाई..
क्या खूब रही ? टिफिन मे कैद रूह !! बढिया दिल को छूती रचना ।
वाह वाह आदरणीय अनवर भाई..... सचमुच यही सच्चाई है आजकल.... और हम लोगों का यही दिनक्रम है.... लेकिन एक कवि मन को कभी हताश नहीं होना चाहिए भाई जी..... ऐसे में तो हमें ज़रूरत है सभी को ऊर्जावान करने की..... कहते हैं ना... जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि..... वैसे सच्चाई को व्यक्त करती इस रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई....
आदरणीय अनवर भाई , हर मध्यम वर्ग के लिये यही सच्चाई है !! सुन्दर रचना के लिये बधाई !!
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