सांत्वना
अस्पताल से जाँच की रिपोर्ट लेकर घर लौटे द्वारिका दास जी अपनी पुरानी आराम कुर्सी पर निढाल होकर लेट से गये. छत को ताकती हुई सूनी निगाहों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे . रिपोर्ट के बारे में बेटे को बताता हूँ तो वह परेशान हो जायेगा.यहाँ आने के लिये उतावला हो जायेगा. पता नहीं उसे छुट्टियाँ मिल पायेंगी या नहीं. बेटे के साथ ही बहू भी परेशान हो जायेगी. त्यौहार भी नजदीक ही है. बेटे को बता ही देता हूँ, कम से कम उसकी सांत्वना तो मुझे अंदर से मजबूत कर देगी. इतनी जल्दी मर थोड़े ही जाऊंगा. मैं ही अभी उसे आने के लिये मना कर दूंगा. द्वारिका दास जी ने मोबाइल निकाला और बेटे को कॉल लगा ही लिया. हैलो पापा......हाँ बेटा मैं बोल रहा हूँ. कुशल-मंगल तो हो ना ? डॉक्टर साहब के पास से आ रहा हूँ, उन्होंने बताया है कि हार्ट का ऑपरेशन करना पड़ेगा. अभी तुम्हारी माँ को नहीं बताया है, बेचारी परेशान....बेटे ने बीच में ही बात काट कर कहा कितने पैसे भेज दूँ ?
द्वारिका दास जी के हाथ से मोबाइल फिसलकर गोद में आ गिरा. कानों में गूँज रही थी आवाज....कितने पैसे भेज दूँ......उनकी आँखें फिर से छत को ताकने लगीं. सूनी आँखों में अब भी कुछ प्रश्न तैर रहे थे , मगर इस बार नमी भी साथ में थी.
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजयनगर, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आज संवेदनाओं की जगह पैसे ने ले ली है. बहुत ही अच्छी लघु कथा! आपको बहुत बहुत बधाई!
//बेटे ने बीच में ही बात काट कर कहा कितने पैसे भेज दूँ ?//
उनका ही बेटा था ? कहीं बच्चे से होस्टल में रख के तो नहीं पढ़ाया था ? अगर नहीं तो फिर संस्कार में कैसे कमी रह गई, पालन पोषण में कही हराम का पैसा तो नहीं लगाया ?
इस तरह से कई प्रश्न दिमाग में नाचने लगें हैं आदरणीय निगम साहब, मुझे जाने क्यों अतिश्योक्ति……………
बहरहाल इस लघुकथा पर बधाई प्रेषित करता हूँ । लघुकथा अच्छी हुई है ।
बेटा.. हम इस पात्र को दोषी मानें ही क्यों ? इसने जो सीखा-समझा, जिन मान्यताओं पर उसे अपनी तथाकथित क़ामयाब ज़िन्दग़ी मिली है, उसकी पहली शर्त ही धन तृष्णा होती है.
एक भावनाप्रधान लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय अरुणजी. इसने झकझोर दिया.
कथ्य पर थोड़ा और काम आवश्यक है. फिर आपकी भी लघुथाएँ क्रिस्प होने लगेंगीं. .. :-))))
सादर
शानदार लघुकथा
आदरणीय अरुण जी,
आधुनिक उपभोक्तावाद ने भावनाओं को भी पैसे में तौलना सीख लिया है. हर चीज का दाम लगाया जाना एक आधुनिकता का पैमाना हो गया है..........सुन्दर कथा.
सादर.
गुम होती संवेदनाओं पर मार्मिक अभिव्यक्ति ....इस सशक्त लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीय अरुण सर
अपने अंदर सत्य को छुपाए हुए इस मार्मिक लघु कथा के लिए बधाई स्वीकारें आदरणीय अरुण जी...
आदरणीय गुरुदेव श्री क्या कहूँ !!! कैसे कहूँ !!! मेरे पास शब्द नहीं हैं कुछ भी कहने के लिए. रोंगटे खड़े हो गए ऑंखें नम हो गईं.
आदरणीय अरुण निगम जी
मर्मस्पर्शी लघुकथा... आधुनिक भौतिकजीवी मानव की भावशून्यता का जो स्वरुप प्रस्तुत किया है..ह्रदय बेध देने वाला है.
इस स्थिति पर क्या कहूं ..निःशब्द हूँ.
सादर धन्यवाद इस संवेदनशील प्रस्तुति पर
आदरणीया कल्पना जी ने जो कटु सत्य कहा है, उससे इतर एक शब्द भी नहीं| नमन आपके गहन विश्लेषण को आदरणीया!
शुभकामनायें आदरणीय अरुण जी!
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