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जिजीविषा - (रवि प्रकाश)

नगरी-नगरी
फूटी गगरी
लेकर पानी
पीना है।
मेरी छानी
गारा-मिट्टी
तेरा आँगन
भीना है।
रेशम-रेशम
तेरा आँचल
मेरा कुर्ता
झीना है।
शैल-शिखर सा
मस्तक तेरा
मेरा बोझिल
सीना है।
दुनिया,तूने
बीच भँवर में
आस-आसरा
छीना है।
अन्धकार में
आँखें फाड़े
जुगनू-जुगनू
बीना है।
खुली हथेली
ख़ाली बर्तन
फिर भी हमको
जीना है।

-मौलिक एवं अप्रकाशित।

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Comment

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Comment by Ravi Prakash on October 17, 2013 at 7:46pm
इतना स्नेह और आशीर्वाद देने के लिए कोटिश: धन्यवाद । कृपया मार्गदर्शन करते रहें।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 12:32pm

अच्छा लगता है जब रचनाएँ खुल कर बोलती हैं, सार्थक बोलती हैं, स्पष्ट बोलती हैं.

आपका प्रयास बना रहे और हम आप्लावित होते रहें.

शुभ-शुभ

Comment by Ravi Prakash on October 9, 2013 at 8:49am
आ॰ सारथी जी, आपसे प्रशंसा पा कर इस नव विहान में मन को उत्साह मिला है। धन्यवाद।
Comment by Saarthi Baidyanath on October 9, 2013 at 8:22am

रेशम-रेशम
तेरा आँचल
मेरा कुर्ता
झीना है।....बहुत बढ़िया रचना ..! पठनीय रचना ..एक सारगर्भित रचना ..! बधाई स्वीकारें आदरणीय :)

Comment by vandana on October 9, 2013 at 6:57am

वाह आदरणीय रवि जी सारगर्भित और सुरीली रचना 

Comment by Ravi Prakash on October 9, 2013 at 6:05am
इतना स्नेह और आशीर्वाद देने के लिए कोटिश: धन्यवाद ।
Comment by Sushil.Joshi on October 9, 2013 at 5:07am

वाह वाह आदरणीय रवि भाई जी.... कितनी सुंदर एवं प्रवाहमयी रचना का उत्थान हुआ है..... बधाई हो....

Comment by दिलीप कुमार तिवारी on October 9, 2013 at 12:20am

खुली हथेली
ख़ाली बर्तन
फिर भी हमको
जीना है। kaya bat hai badhai ho...............

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 8, 2013 at 11:10pm

भाई रविप्रकाश जितनी प्रशंसा करूँ कम है छोटी छोटी पंक्तियाँ सागर जैसी गहरी हैं भाई क्या कहने मन प्रसन्न हो उठा बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by annapurna bajpai on October 8, 2013 at 11:07pm

आ0 रवु प्रकाश जी बहुत बधाई इस अनुपम रचना के लिए , प्रवाह भी कहीं बाधित नहीं लगा । 

कृपया ध्यान दे...

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