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गजल: दर पे कभी किसी के भी सज्दा नहीं किया//शकील जमशेदपुरी//

बह्र: 221/2121/1221/212

_____________________________

दर पे कभी किसी के भी सज्दा नहीं किया
हमने कभी जमीर को रुसवा नहीं किया

हमराह मेरे सब ही बलंदी पे हैं खड़े
पर मैंने झूठ का कभी धंधा नहीं किया

जाने न कितनी रात मेरी आंख में कटी
नींदों से तेरे ख्वाब का सौदा नहीं किया

मजबूर था सो बोल दिया झूठ चांद से
तुमने हमारे जख्म को ताजा नहीं किया

मुद्दत के बाद पूछना कैसे हो तुम 'शकील'
एहसास छेड़ कर के ये अच्छा नहीं किया

-शकील जमशेदपुरी

______________________________

*मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by mrs manjari pandey on October 15, 2013 at 1:06pm

       

       आदरणीय  शकील जी बड़ी साफगोई से सच्चाई बयाँ  कर  दी . अच्छी लगी ग़ज़ल . दाद क़ुबूल करें .

Comment by शकील समर on October 15, 2013 at 11:58am

आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी, आभार आपका। जल्द ही संशोधित गजल पेश करूंगा।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 15, 2013 at 10:56am

आदरणीय शकील जी  ..सुंदर भावों को सहेजे शानदार ग़ज़ल ...तकनीकी पक्ष के सम्बन्ध में आदरणीय वीनस जी की सलाह अति महत्वपूर्ण है ..ऊंचाइयों को छूना तो चुटकी का खेल है
पर मैंने झूठ का कभी धंधा नहीं किया इस शेर पर मेरी तरफ से बिशेष रूप से हार्दिक बधाई 

Comment by शकील समर on October 15, 2013 at 8:36am

आदरणीय वीनस सर, इस मंच से जुड़ने का मेरा उद्देश्य सार्थक होता प्रतीत हो रहा है। आपके इस अमूल्य सुझाव के लिए आपका हृदय से आभार। संशोधित गलज को जल्द ही पोस्ट करुंगा। सादर।

Comment by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 5:52am

शकील भाई..... एक बार फिर से भाव के लिहाज़ से खरे उतरे हैं आप...... बधाई हो..... शिल्प के विषय में आदरणीय वीनस भाई की सलाह विचारणीय है.....

Comment by वीनस केसरी on October 15, 2013 at 3:57am

मित्रवर बहुत शानदार ग़ज़ल है मगर आपने ग़ज़ल की मात्रा गलत निकली है
इसे इस बहर के अनुसार तक्तीअ कीजिये और जो शेर बेबहर हो रहे हैं उनको सही करके ग़ज़ल फिर से पोस्ट कीजिये

२२१ / २१२१ / १२२१ / २१२

यह मुज़ारे की उप बहर है ,,, मुज्तास के जिहाफ में भी ये बहर निकलती है

कृपया ध्यान दे...

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