बह्र: 221/2121/1221/212
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दर पे कभी किसी के भी सज्दा नहीं किया
हमने कभी जमीर को रुसवा नहीं किया
हमराह मेरे सब ही बलंदी पे हैं खड़े
पर मैंने झूठ का कभी धंधा नहीं किया
जाने न कितनी रात मेरी आंख में कटी
नींदों से तेरे ख्वाब का सौदा नहीं किया
मजबूर था सो बोल दिया झूठ चांद से
तुमने हमारे जख्म को ताजा नहीं किया
मुद्दत के बाद पूछना कैसे हो तुम 'शकील'
एहसास छेड़ कर के ये अच्छा नहीं किया
-शकील जमशेदपुरी
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*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शकील जी बड़ी साफगोई से सच्चाई बयाँ कर दी . अच्छी लगी ग़ज़ल . दाद क़ुबूल करें .
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी, आभार आपका। जल्द ही संशोधित गजल पेश करूंगा।
आदरणीय शकील जी ..सुंदर भावों को सहेजे शानदार ग़ज़ल ...तकनीकी पक्ष के सम्बन्ध में आदरणीय वीनस जी की सलाह अति महत्वपूर्ण है ..ऊंचाइयों को छूना तो चुटकी का खेल है
पर मैंने झूठ का कभी धंधा नहीं किया इस शेर पर मेरी तरफ से बिशेष रूप से हार्दिक बधाई
आदरणीय वीनस सर, इस मंच से जुड़ने का मेरा उद्देश्य सार्थक होता प्रतीत हो रहा है। आपके इस अमूल्य सुझाव के लिए आपका हृदय से आभार। संशोधित गलज को जल्द ही पोस्ट करुंगा। सादर।
शकील भाई..... एक बार फिर से भाव के लिहाज़ से खरे उतरे हैं आप...... बधाई हो..... शिल्प के विषय में आदरणीय वीनस भाई की सलाह विचारणीय है.....
मित्रवर बहुत शानदार ग़ज़ल है मगर आपने ग़ज़ल की मात्रा गलत निकली है
इसे इस बहर के अनुसार तक्तीअ कीजिये और जो शेर बेबहर हो रहे हैं उनको सही करके ग़ज़ल फिर से पोस्ट कीजिये
२२१ / २१२१ / १२२१ / २१२
यह मुज़ारे की उप बहर है ,,, मुज्तास के जिहाफ में भी ये बहर निकलती है
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