आजकल अक्सर
टीसती रहती हैं
माथे पर उभर आई नसें
मटमैली-लाल होकर
दुखने लगती हैं आँखें
चेहरे पर बरसती रहती है फटकार
पपडियाये होंठों से हठात
निकलती हैं सूखी गालियाँ
खोजती रहती हैं नज़रें
दूर-दूर तक
क्षितिज से टकराकर
खाली हाथ लौट आती हैं निगाहें
दिमाग में ख्यालों का अकाल
दिल में कल्पनाओं के टोटे...
सब तरफ एक सन्नाटा...
कोई आहट...न कोई इशारा...
झुंझुलाए मेरे इस रूप से
घबराते हैं अपने भी
और बिदक गए
कोसों दूर सपने भी.....
सपनो के बिना
क्या इन्सान जीवित रह सकता है..?
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
उद्विग्नता और एकाकीपन को शब्दबद्ध करना रचनाकारों को सबसे प्रिय है. विधा कोई हो लेकिन सफल गिने-चुने ही हो पाते हैं. अतुकान्त विधा में तो यह और भी कठिन है. आपकी इस सफल रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय.
सादर
behatarin sundar rachna , waah hardik badhai
झुंझुलाए मेरे इस रूप से
घबराते हैं अपने भी
और बिदक गए
कोसों दूर सपने भी.....
सपनो के बिना
क्या इन्सान जीवित रह सकता है..?.............. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. बधाई आप को
सुंदर रचना!! आपको हार्दिक बधाई !!
आदरणीय अनवर भी ..मेरे ख्याल से सबको सपने जरूर देखन सचाहिए ..बिन जिंदगी नहीं जी जा सकती ..पर हो सकता है सपने के चाहत अपार कष्ट भी दे फिर भी सपने जरूरी हैं बेहद जरूरी ...इस बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें
मटमैली-लाल होकर
दुखने लगती हैं आँखें
चेहरे पर बरसती रहती है फटकार
पपडियाये होंठों से हठात
निकलती हैं सूखी गालियाँ
दुःख जब चारों ओर से प्रबल हो जाए, उस दुखी वेदना को, अंतर्मन से चित्रित करती आपकी सार्थक रचना पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय अनवर साहब
खोजती रहती हैं नज़रें
दूर-दूर तक
क्षितिज से टकराकर
खाली हाथ लौट आती हैं निगाहें...... वाह आदरणीय अनवर भाई.... कितना सार्थक चित्र उकेरा है आपने मस्तिष्क पर..... और अंत में एक अनसुलझा सवाल.....
सपनो के बिना
क्या इन्सान जीवित रह सकता है..?....... इस उत्तर शायद हाँ भी है और नहीं भी..... हाँ इसलिए क्योंकि यदि सपने देखे एवं पूर्ण न हुए तो बहुत चोट लगती है...... एवं नहीं इसलिए क्योंकि सपने ही तो हैं जो हमें मुश्किल से मुश्किल हालात में भी डटे रहना सिखाते हैं...... इस सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बधाई हो....
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