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सपने बिना जीवन

आजकल अक्सर
टीसती रहती हैं
माथे पर उभर आई नसें


मटमैली-लाल होकर
दुखने लगती हैं आँखें


चेहरे पर बरसती रहती है फटकार

पपडियाये होंठों से हठात
निकलती हैं सूखी गालियाँ


खोजती रहती हैं नज़रें
दूर-दूर तक
क्षितिज से टकराकर
खाली हाथ लौट आती हैं निगाहें

दिमाग में ख्यालों का अकाल
दिल में कल्पनाओं के टोटे...


सब तरफ एक सन्नाटा...
कोई आहट...न कोई इशारा...

झुंझुलाए मेरे इस रूप से
घबराते हैं अपने भी
और बिदक गए
कोसों दूर सपने भी.....
सपनो के  बिना
क्या इन्सान जीवित रह सकता है..?

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 7:37pm

उद्विग्नता और एकाकीपन को शब्दबद्ध करना रचनाकारों को सबसे प्रिय है. विधा कोई हो लेकिन सफल गिने-चुने ही हो पाते हैं. अतुकान्त विधा में तो यह और भी कठिन है. आपकी इस सफल रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय.

सादर

Comment by विजय मिश्र on October 16, 2013 at 6:02pm
जागी आँखों के सपने जिंदगी में जीने के दम भरते हैं ,बेहद खुस्क और खुरदरी जमीन पर उगी मगर बहुत प्यारी सी रचना जो जिंदगी के हकीकतों से रूबरू कराती है .शुक्रिया अनवर भाई .
Comment by shashi purwar on October 16, 2013 at 5:08pm

behatarin sundar rachna , waah hardik badhai


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 15, 2013 at 3:10pm
आदरणीय अनवर भाई , सुन्दर प्रतुति के लिये बधाई !!!
Comment by Meena Pathak on October 15, 2013 at 12:14pm

झुंझुलाए मेरे इस रूप से 
घबराते हैं अपने भी 
और बिदक गए 
कोसों दूर सपने भी.....
सपनो के  बिना 
क्या इन्सान जीवित रह सकता है..?.............. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. बधाई आप को 

Comment by वेदिका on October 15, 2013 at 11:19am

सुंदर रचना!! आपको हार्दिक बधाई !!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 15, 2013 at 11:16am

आदरणीय अनवर भी ..मेरे ख्याल से सबको सपने जरूर देखन सचाहिए ..बिन  जिंदगी नहीं जी जा सकती ..पर हो सकता है सपने के चाहत अपार कष्ट भी दे फिर भी सपने जरूरी हैं बेहद जरूरी ...इस बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 15, 2013 at 10:45am

मटमैली-लाल होकर
दुखने लगती हैं आँखें

चेहरे पर बरसती रहती है फटकार

पपडियाये होंठों से हठात
निकलती हैं सूखी गालियाँ

दुःख जब चारों ओर से प्रबल हो जाए, उस दुखी वेदना को, अंतर्मन से चित्रित करती आपकी सार्थक रचना पर बहुत बहुत बधाई आदरणीय अनवर साहब

Comment by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 5:58am

खोजती रहती हैं नज़रें
दूर-दूर तक
क्षितिज से टकराकर
खाली हाथ लौट आती हैं निगाहें...... वाह आदरणीय अनवर भाई.... कितना सार्थक चित्र उकेरा है आपने मस्तिष्क पर.....  और अंत में एक अनसुलझा सवाल.....

सपनो के  बिना
क्या इन्सान जीवित रह सकता है..?....... इस उत्तर शायद हाँ भी है और नहीं भी..... हाँ इसलिए क्योंकि यदि सपने देखे एवं पूर्ण न हुए तो बहुत चोट लगती है...... एवं नहीं इसलिए क्योंकि सपने ही तो हैं जो हमें मुश्किल से मुश्किल हालात में भी डटे रहना सिखाते हैं...... इस सार्थक अभिव्यक्ति के लिए बधाई हो....

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