जुग की मांग
समय की डिमांड
बात मेरी मान
बन जाएँ थेथर श्रीमान....
सलीकेदार लोगों को
जीने नही देगा समाज
भले से अच्छा था विगत
लेकिन बहुत क्रूर है आज
जीने की ये कला
जिसे सीखने में सबका भला
वरना रह जाओगे तरसते
आपका हिस्सा ये थेथर
झटक लेंगे हँसते-हस्ते...
हम जिस समय में जी रहे हैं
उसमे बदतमीज़, कमीना,
बेशरम और थेथर जैसे
असंसदीय उपाधियों से
बिभुषित होने में खुद को
गौरवान्वित महसूस करते हैं लोग...
थेथर बनने की प्रक्रिया से
क्या हम भी गुजरें श्रीमान...?
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
रचना में दीखता हुआ सपाटपन है. लेकिन मानवीय-सामाजिक पतन से हृदय आहत है यह भी उतना ही सत्य है.
इस प्रस्तुति के लिए बधाई, आदरणीय
हम जिस समय में जी रहे हैं
उसमे बदतमीज़, कमीना,
बेशरम और थेथर जैसे
असंसदीय उपाधियों से
बिभुषित होने में खुद को
गौरवान्वित महसूस करते हैं लोग...
मुझे नहीं पता 'थेथर' नाम से फिल्म है या नहीं पर अब विचार किया जाना चाहिए
आदरणीय अनवर जी ..आपकी इस उत्क्रिस्ट रचना के लिए आपको बधाई ....बिजय भाई की बातों से भी इत्तेफाक रखता हूँ ..सादर बधाई के साथ
आदरणीय अनवर भाई , बहुत बढ़िया !!! हार्दिक बधाई !!!
एक दैन्यदिन के मानवीय चिंतन को चरितार्थ किया आपने ...रचना के आख़िर में पाठकों से पूछा गया प्रश्न ... सचमुच उद्वेलित करता है !....बढ़िया :)
थेथर बनने की प्रक्रिया से
क्या हम भी गुजरें श्रीमान..... बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती इस कृति के लिए बधाई हो आदरणीय अनवर भाई...
....श्री अनवर जी कलम बेचैन है ... पर वे हैं कहाँ जिनकी हम जय बोले... हमारे बोलने के धर्म का निर्वाह आप जैसे कलमकार कर रहे हैं ..यहाँ सांत्वना देता है ... पर ये सूरत बदलने ..को कुछ और चाहिए लगता है ..विचार परक और सशक्त सामयिक स्वर लिए इस रचना के लिए हार्दिक साधुवाद !
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