आज फिर एक सफ़र में हूँ...
आज फिर किसी मंज़िल की तलाश में,
किसी का पता ढूँढने,
किसी का पता लेने निकला हूँ,
आज फिर...
सब कुछ वही है...
वही सुस्त रास्ते जो
भोर की लालिमा के साथ रंग बदलते हैं,
वही भीड़
जो धीरे-धीरे व्यस्त होते रास्तों के साथ
व्यस्त हो जाती है,
वही लाल बत्तियाँ
जो घंटों इंतज़ार करवाती हैं,
वही पीली गाड़ियाँ
जो रुक-रुक कर चलती हैं,
कभी हवा से बात करती हैं,
तो कभी साथ चलती अपनी सहेलियों से कानाफ़ूसी,
उन्हीं में से एक में बैठा मैं,
वही...
वही पीछे की ख़ाली सीट,
और वही मेरा दायाँ हाथ सीट पर
किसी हाथ को अनजाने ही ढूँढता सा...
रास्ते भर ढूँढती हैं आँखें
वही पावभाजी वाला ठेला,
उस काले बड़े तवे पर सब्ज़ियों के साथ
तुम्हारी आँखों के आश्चर्य का मिश्रण,
और वही आइस्क्रीम... डेयरी मिल्क वाली,
मगर आज बँधा है पालीथीन का एक ही बैग...
है सब वही,
मगर आज बस एक ही चम्मच,
छोटी सी, वही...लकड़ी की...पर बस एक...
वही तुड़ा-मुड़ा आसमां आज भी...
शायद आज भी बरस पड़े कोई बादल फट कर,
फिर शायद बनें रास्ते में कोई पोखर
जहाँ मिल जाये एक तैरती कागज़ की नाव,
वह छोटा सा मंदिर,
जो अचानक ही मिल गया था
खुले बरसते बादलों के नीचे,
वही शिवलिंग
और हमारा साथ-साथ हाथ जोड़ना...
तुम्हारी श्रद्धा और मेरा तुम्हारा मन रखना...
आज मैं अकेले खड़ा हूँ, बिना हाथ जोड़े...
वह लंबी सड़क,
सड़क के पास बड़ी सी पानी की खाल,
वही हवा,
वही धूप,
वही खुश्बू,
हर जगह
वही सब कुछ।
बस नहीं हो, तो तुम...
पर हो तो...तुम वही...
मेरे साथ हो तुम...वही तुम...
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सभी जिन्होंने इस कविता को सराहा, असंख्य धन्यवाद।
वह लंबी सड़क,
सड़क के पास बड़ी सी पानी की खाल,
वही हवा,
वही धूप,
वही खुश्बू,
हर जगह
वही सब कुछ।
बस नहीं हो, तो तुम...
शब्दों और भावों का बहुत सुंदर संचयन.....जो अंत तक पाठक को बांधे रखता है.
सादर
कुंती
मनुष्य जीवन भर मंजिल तलाशता रहता है | विचारों का द्वन्द चलता रहता है, पथ पर चलते चलते भी विचारों में खोया रहता है |
और खोया रहता है अपनों की स्म्रतियों में | फिर कभी अपने के अकेला खडा पाता है | पाठको को भी विचार मंथन को विवश करती
सुन्दर रचना के लिए बधाई आदरणीया
सूक्ष्म भाव और स्थूल संज्ञा के बीच के द्वन्द्व का सुन्दर शब्द-चित्रण हुआ है, आदरणीया मानोशी जी.
आदमी जहाँ हो कर भी नहीं होता, जिसके साथ नहीं होता, एक वायव्य संसार रच उसे वहीं जीने लगता है. फिर सायास दोनों संसारों को जोड़ स्वयं संतुष्ट हो लेता है. यह आत्मजीविता उस कारण या उन कारणों को बहुत दूर रखती है जिनका परिणाम उक्त परिस्थितियाँ हुआ करती हैं, जिनसे कविता का नायक गुजरता हुआ दीख रहा है.
चूँकि बिम्बों की सार्थकता पात्रों के सापेक्ष ही उपयुक्त हुआ करती है, सो एकाकीपन को जीता नायक पात्रों या पात्र को तिरोहित नहीं होने देता.
नेपथ्य की ऐसी मनोदशा से गुजरती हुई यह रचना कवि को ही नहीं उसके पाठकों को भी संतुष्ट करती है.
हम भी संतुष्ट हुए आदरणीया.
सादर
आदरणीया मानोशी जी, दिनचर्या के साथ-साथ चलती हई स्मृतियाँ......... विरह जीवंत हो उठा .
विरह भावों को बहुत ही सुंदर तरीके से रचना में पिरोया है आपने आदरणीया मानोशी जी.... बधाई हो आपको इस सुंदर कृति के लिए....
आह!... वियोग के भावों को आपने अपनी रचना से भरपूर समृद्ध किया है|
बधाई !!
अपनों का साथ कभी-कभी न होकर भी कितना पास होता है! भीड़ में होते हुए भी अकेलेपन के एहसास, और दूर होकर भी पास होने के भाव को बहुत खूब जिया है आपकी कविता ने. बहुत सुन्दर कविता!
आपको हार्दिक बधाई!
आदरणीया मानोशी जी , वियोग काल की मनः स्थिति का बहुत सुन्दर चित्रण किया आपने अपनी रचना में !! सुन्दर विरह रचना के लिये आपको हार्दिक् बधाई !!!!!
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