दीवार
मैं जानता हूँ
तुम्हें उस दीवार से डर लगने लगा है,
दीवार, जो तुम्हारे और तुम्हारे अपनों के बीच
समय ने खड़ी कर दी है.
उठो,
उस दीवार से ऊपर उठो
नहीं तो सुबह औ’ शाम
उसकी लम्बी होती छाया
तुम्हें लील लेगी.
उस पार देखने के लिये
ऊपर उठना पड़ेगा,
उस दीवार से बहुत ऊपर –
और,
दीवार को नीचा दिखाने के लिये
तुम्हें नीचे आना पड़ेगा,
उस ज़मीं पर
जहाँ तुम्हारे अपने
तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं.
अगर सिर्फ़ सोचते रहोगे
दीवारें खड़ी होती जाएँगी
तुम्हारे चारों ओर
नज़दीक – और नज़दीक
चुन दिये जाओगे
तुम अपने ही सोच द्वारा
रंग, जाति, भाषा और धर्म के
भंगुर ईंटों के बीच,
हमेशा के लिये.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
अगर सिर्फ़ सोचते रहोगे
दीवारें खड़ी होती जाएँगी
तुम्हारे चारों ओर
नज़दीक – और नज़दीक
चुन दिये जाओगे
तुम अपने ही सोच द्वारा
रंग, जाति, भाषा और धर्म के
भंगुर ईंटों के बीच,
हमेशा के लिये.
वाह - वाह आदरणीय शरदिन्दु जी, उम्दा रचना के लिए बधाई .........
बहुत सुन्दर भाव पूर्ण रचना आदरणीय
बधाई स्वीकारिये
उठो,
उस दीवार से ऊपर उठो
नहीं तो सुबह औ’ शाम
उसकी लम्बी होती छाया
तुम्हें लील लेगी.
बेहद मार्मिक संदेश दिया है आपने, कविता के माध्यम से|
अनंत शुभकामनायें आ0 शरदिंदु जी!
बेहतरीन, लाजवाब क्या सन्देश है , शारर्देन्दु जी भूरि भूरि बधाई I
आओ सबकी बुद्धि फिरा दे I दुनिया की दीवार गिरा दे I
आदरणीय शरदिंदु जी
अनकही अदृश्य सत्ताहीन मानसिक दीवारें रिश्तों के बीच जब आती है...तो अनचाहे ही मन डर के आवरण में कभी न पाटी जा सकने वाली दूरियां पैदा कर देता है.... उस मानसिक सोच के पार ही उजाले की किरण होती है..जहां से उजाले चुन, अहंकार तज वापिस ज़मीन पर ही आना होता है..अपनों के पास , अन्यथा इन आभासी दीवारों में चुन ही दिया जाता है मानव बेबस अकेला सा........मर्मस्पर्शी प्रस्तुति पर सादर बधाई..
उस पार देखने के लिये
ऊपर उठना पड़ेगा,
उस दीवार से बहुत ऊपर –....................वाह
और,
दीवार को नीचा दिखाने के लिये
तुम्हें नीचे आना पड़ेगा,..........................बिलकुल सही
उस ज़मीं पर
जहाँ तुम्हारे अपने
तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं..............................:))बहुत सुन्दर
तुम अपनी ही सोच द्वारा
रंग, जाति, भाषा और धर्म की
भंगुर ईंटों के बीच,
हमेशा के लिये..........................ये दो परिवर्तन किये हैं शायद उचित प्रतीत हों ..सादर!
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