मेघ भी है, आस भी है और आकुल प्यास भी है,
पर बुझा दे जो हृदय की आग वह पानी कहाँ है ?
स्वाति जल की कामना में, 'पी कहाँ?' का मंत्र पढ़कर
बादलो को जो रुला दे, मीत ! वह मानी कहाँ है ?
क्षत-विक्षत है उर धरा का, रस रसातल में समाया,
सत्व सारा जो लुटा दे, अभ्र वह दानी कहाँ है ?
पार नभ के लोक में, जो बादलो पर राज करता,
छल-पराक्रम का धनी वह इंद्र अभिमानी कहाँ है ?
मौन पादप, वृक्ष नीरव, वायु चंचल, प्राण व्याकुल
इन्द्रधनुषी इस रसा का रंग वह धानी कहाँ है ?
सृष्टि भीगे, रूप सरसे, जिस सुहृद से नेह बरसे,
उस पिघलते मेह जैसे वीर का सानी कहाँ है ?
कुछ सरस है, कुछ विरस भी, तृप्त कोई, दृप्त कोई
नियति जल कि थाह लेता जीव अज्ञानी कहाँ है ?
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय गोपाल भाई , अदभुत गीत रचना !!!! इस गीत की तारीफ कर सकूँ इतनी योग्यता मुझ मे नही है !!!!!
!!!! मौन बधाई स्वीकार करें !!!!!!
संदीप कुमार पटेल जी ओर शिज्जू शकूर जी आपकी हौसला अफजाई के लिए शत शत धन्यवाद
अहा क्या ही सुन्दर शब्द चयन वाह वाह वाह
बहुत सुन्दर
इस लाजवाब रचना पर ह्रदय से बधाई स्वीकारिये आदरणीय
जय हो
वाह आदरणीय डॉ श्रीवास्तव सर मुझे तारीफ के शब्द नही मिल रहे लाजवाब रचना, अब तो आपकी हर रचना की अधीरता से प्रतीक्षा रहेगी, इस बेहतरीन रचना के लिये बधाई स्वीकार करें
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