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बह्र- "रमल मुसम्मन महजूफ"
.
मुन्तज़िर अरमाँ सभी हाथों से ढा देते
ऐ ख़ुदा हमको अगर पत्थर बना देते
इक समंदर हम नया दिल में बसा देते
तुम अगर आँसू हमें पीना सिखा देते
आजिज़ी होती न दिल में तीरगी होती
बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते
रूह प्यासी क्यूँ ये सहरा में खड़ी होती
प्यार का चश्मा अगर दिल में बहा देते
दिल मुहब्बत में धड़कता ये हमारा भी
तुम अगर उल्फत भरे नगमे सुना देते
इक फ़सुर्दा फूल चाहत में हुए तेरी
फिर महक जाते अगर तुम मुस्कुरा देते
गमज़दा बेशक़, नहीं मगरूर हम देखो
लौट आते, तुम अगर मुड़ कर सदा देते
काँपती चौखट न दीवारें हिला करती
प्यार के आधार पर जो घर टिका देते
तल्खियां सब “राज” दिल में दफ्न कर जाती
ये जमीं तो क्या सितारे भी दुआ देते
*********************
आजिज़ी=उकताहट
फ़सुर्दा=मुरझाये हुए
मुन्तज़िर=प्रतीक्षारत
तल्खियां =कडवाहट
तीरगी =अँधेरा (गम )
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
(संशोधित)
Comment
आपका बहुत- बहुत आभार आदरणीय अपने मूल संकलन में ढा शब्द के साथ कुछ बेहतर स्पष्ट उला लिखूंगी फिलहाल काम चल गया ,साँस जो गले में अटकी थी वापस आ गई :):):)
मुन्तज़िर अरमाँ सभी दिल में दबा देते
ऐ खुदा हमको अगर पत्थर बना देते
की जगह
मुन्तज़िर अरमाँ सभी हाथों से ढा देते
ऐ ख़ुदा हमको अगर पत्थर बना देते
कहन बहुत सुलझी प्रतीत नहीं हुई, लेकिन समस्या से निज़ात मिलती दिख रही है, आदरणीया.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ जी इस तरह लिखने से क्या समस्या हल हो रही है??
मुन्तज़िर अरमाँ सभी हाथों से ढा देते
ऐ ख़ुदा हमको अगर पत्थर बना देते
भाई शिज्जू जी, आप अपनी सलाह के मतले को पुनः देखें. क्या दबा और दुआ हमकाफ़िया हो सकते हैं ? इता दोष तो हट जायेगा लेकिन देखिये कौन सा नया दोष मतले पर लद जायेगा.
शुभ-शुभ
//मुन्तज़िर अरमाँ सभी दिल में दबा देते
ऐ खुदा वो हमको दिल से जो दुआ देते//
आदरणीया राजेश दीदी मेरे दिमाग में कुछ आया था आपसे बिना कहे लिख दिया उम्मीद है आपको बुरा नही लगा होगा, शायद इस तरह आप कोशिश करें तो इता दोष हट जायेगा
आदरणीया, मेरे कहे को सम्मान देने के लिए सादर धन्यवाद.
ख़ैर, आदरणीया, छुपा देते करने से भी इता दोष का निवारण नहीं होने वाला. क्योंकि आपने इस ग़ज़ल की काफ़िया आ को लिया है. फिर से कुछ सोचा जाये. और छुपा से तो और सिनाद दोष हो जायेगा.
मैं आपका आभारी हूँ, आदरणीया, कि सुझाव पर आपने मनोयोग से सोचा. वर्ना अबतो इस मंच पर वाहवाहियों से हुई मुग्धता का आलम ये है कि लोग-बाग सुझावों पर बहस करते हुए मिल रही वाहवाहियों पर आनन्द लेते दीख रहे हैं. रचनाधर्म की ऐसी-तैसी.. हा हा हा..
सादर
आदरणीय सौरभ जी ग़ज़ल पर आपकी उपस्थति सराहना ,मशविरा सब हृदय तल से स्वीकार सादर आभार ध्यान दिलाने के लिए आपसे ही रिक्वेस्ट करुँगी कि मतले की पहली पंक्ति में छुपा देते कर दीजिये.प्लीज
कहना न होगा आपकी ग़ज़ल अपनी रवानी में बढ़ती है. अच्छे अश’आर हुए हैं. प्रस्तुतियों में उर्दू शब्दों का होना भावुक अभिव्यक्तियों की कसौटी है शायद. .. :-))))
यह अवश्य है कि अब आपकी ग़ज़लों में इता दोष का होना खलता है. लेकिन देख रहा हूँ इसके प्रति किसी ने अगाह नहीं किया है, शायद. हम कैसी दिशा की ओर बढ़ रहे हैं ?
खैर.. .
शुभेच्छाएँ
प्रिय प्राची जी आपकी उपस्थिति और सराहना से ग़ज़ल धन्य हुई आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार आपका
इक फ़सुर्दा फूल चाहत में हुए तेरी
फिर महक जाते अगर तुम मुस्कुरा देते ...बहुत सुन्दर
आदरणीया राजेश जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है
हार्दिक बधाई
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