जरूरत
पूनम कानों मे ईयर फोन लगाये रेलिग के सहारे खड़ी किसी से बाते कर रही थी , पास ही चारपाई पर लेटा उसका दो माह का दूधमुहा शिशु बराबर बिलख रहा था । इतनी देर मे तो पड़ोस की छतों से लोग भी झांक कर देखने लगे थे कि क्या कोई है नहीं बच्चा इतना क्यों रो रहा है ?
देखा तो पूनम पास ही खड़ी थी लेकिन उसका मुंह दूसरी ओर था । लोगों ने आवाज भी लगाई पर उसने सुना नहीं । अब तक नीचे से बूढ़ी सास भी हाँफती हुई आ गई थी और बड़बड़ाते हुए उन्होने बच्चे को गोद मे उठा लिया । परन्तु पूनम कि बातें खतम नहीं हुई । उन्होने बच्चे को साफ किया मालिश करके नहला धुला कर सुला दिया था । अभी भी वह ज्यों की त्यों ही खड़ी थी । उनसे रहा न गया आखिर पास जाकर बोल ही दिया ‘ क्यों बहू बातें आज ही खत्म करोगी या ........’ । पूनम तड़प कर बोल पड़ी- ‘सुनिए माँ जी बच्चे की जरूरत आपको थी मुझे नहीं , अब संभालिए भी आप । नहीं संभल रहा तो दे दीजिये जिस किसी को जरूरत हो । मै अपना जीवन इस बच्चे के लिए नहीं खराब कर सकती । ये पोतड़े बदलना उसको नहलाना ओह ! माय गॉड छिः !! मुझसे नहीं होगा ।
समय के साथ बच्चा बड़ा होने लगा । दादी माँ का देहांत हो गया । माँ भी अब अपने यौवन को खोने लगी थी , ढलती उम्र मे अब उसे उसी बच्चे के साथ की जरूरत थी ।
Comment
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, आपकी लघुकथा वास्तविकता के काफी करीब है। अधिकतर आधुनिकाएँ बच्चों को सास के हवाले करके आज़ाद हो जाती हैं, लेकिन फिर भी ममत्व पर प्रहार उचित नहीं लगा। एक अच्छे विषय को कलमबद्ध करने के लिए आपको हार्दिक बधाई
आ0 वीनस केसरी जी माँ के लिए बच्चे कभी बोझ नहीं होते , उनके लिए किया जाने वाला हर काम माँ को सुकून ही प्रदान करता है , लेकिन कुछ अपवाद भी होते है जिनमे से एक की मै प्रत्यक्ष दर्शी रही हूँ जिसने मुझे यह कथा लिखने को प्रेरित किया । हाँ इसका अंत मैंने काल्पनिक ही किया है । जिसमे शायद कुछ कमियाँ दिख रही हैं ।
भाई शिज्जूजी,
पहले तो मैं इस बात को लेकर असंयत हूँ कि आपने इस प्रस्तुति से अपनी वह टिप्पणी ही हटा दी जिसको आधार बना कर मैंने कथा-शिल्प से सम्बन्धी एक सार्वभौमिक टिप्पणी की है. जिससे एक वाक्य उद्धृत कर आपने प्रस्तुत प्रश्न किया है.
खैर, उस बात को अधिक तरज़ीह न देते हुए मैं प्रस्तुतियों पर चाहे किसी विधा की हों संवाद करने, बनाने का पक्षधर हूँ, ताकि मात्र भावुकता को अपने रचनाकर्म का आधार बना कर प्रयासरत रचनाकर्ता भावुकता के अलावे तथ्यपरक विन्दुओं को भी अपने रचनाकर्म का आधार बनावें या बनाने लगें.
हो सकता है किसी एक विधा का जानकार पाठक या रचनाकार अन्य विधाओं के मूल विन्दुओंसे परिचित न हो या न दिखे. लेकिन इस हेतु जानकारी के लिए उद्यत होना सदा स्वागतयोग्य है. तभी वह पाठक अनावश्यक की वाहवाही करने से बाज भी आयेगा. किसी विधा, चाहे वह संगीत विधा ही क्यों न हो, में रस लेना एक बात है, और अपनी भावदशा को संतुष्ट करते हुए तथ्यपरक रस लेना ठीक दूसरी बात. विधाओं की हल्की जानकारी भी न रखना हमें उस शिशु की श्रेणी में रखता है जिसे अपनी माता की लोरियों में रस तो मिलता है,खूब मिलता है, इतना कि वह भाव-विभोर हो कर सो ही जाता है ! लेकिन वह लोरियों के शास्त्रीय विधान या संगीत के आरोह-अवरोह या उसकी लय से पूरी तरह अनभिज्ञ होता है. .. :-)))
मि. इण्डिया और कोई मिल गया का संदर्भ :
भाईजी, मि.इण्डिया या मि. एक्स या मि. एक्स इन बोम्बे, जिस पर मि. इण्डिया जैसी फ़िल्म आधारित थी, या कोई मिल गया या क्रिश्श या इसकी सीरिज जैसी फ़िल्में फैण्टेसी (फतांसी) फ़िल्मों की कैटेगरी में आती हैं. या, इन्हें बहुत सैद्धान्तिक रखा जाये और वैज्ञानिक कथ्य-तथ्य को प्रश्रय मिलता हो, तो वे वैज्ञानिक फ़िल्मों की कैटेगरी में आती हैं. पश्चिमी साहित्य-संसार के मि. जूल के उपन्यास या उनकी कहानियाँ वैज्ञानिक उपन्यासों या कहानियों की श्रेणी में आती हैं. इसी तरह, जेके रोलिंग की हैरी पोटर की कहानियाँ या उनके उपन्यास फैण्टेसी की ही श्रेणी में रखे जाते हैं. इन फ़िल्मों या कहानियों या उपन्यासों के सापेक्ष सार्वभौमिक समाज, या, पूरी मानवता, या, मनुष्य से सम्बन्धित किसी समस्या या मनोवैज्ञानिक पहलू का कोई निराकरण या निर्वहन भले क्यो न हो --किसी साहित्य का उद्येश्य और लक्ष्य मनुष्य ही है-- उन्हें सामाजिक कहानियों या उपन्यासों या फ़िल्मों की श्रेणी में नहीं रखा जाता.
इस तथ्य के सापेक्ष आदरणीया अन्नपूर्णाजी की प्रस्तुत लघुकथा का तानाबाना पूरी तरह से सामाजिक है. इसमें प्रयुक्त कथ्य हमारे आपके बीच के समय अथवा विगत कालखण्ड को अवश्य संतुष्ट करें, इसका आग्रह होता है, होना ही चाहिये. अन्यथा समय-काल दोष प्रमुखता से उभर कर कहानी की गहनता को मात्र हल्का ही नहीं, अमान्य कर देगा, उद्येश्य चाहे कहानी का कुछ भी क्यों न हो, प्रस्तुति चाहे कितनी ही मुखर क्यों न हो.
विश्वास है, स्पष्ट कर पाया.
सादर
///किन्तु, मात्र ’आपसी वाहवाही’ अथवा ’मैं अमुक प्रस्तुति के भाव को समझ गया, बधाई..’ आदि से किसी रचनाकार, या मंच का ही, भला नहीं होने वाला.///
आदरणीय सौरभ सर आपने सही कहा मैं आपसे सर्वथा सहमत हूँ। साथ ही मेरे मन में कई प्रश्न भी उठ रहें हैं, क्यूँकि वाहवाही करने वालों में मैं भी हूँ।
27 वर्ष पहले एक फिल्म आई थी मि. इंडिया जिसमें कहानीकार द्वारा एक ऐसी युक्ति की कल्पना की गई थी जिसे पहनने के बाद इंसान दिखाई नही देता एक और फिल्म पिछले दशक मे आई थी कोई मिल गया जिसमें एक एलियन के बारे में बताया गया है, यह कहना गलत नही होगा कि दोनों फिल्में काल्पनिक चीजों पर आधारित थी, ध्यान से देखा जाये तो दोनों फिल्में संदेश भी देती हैं। मि. इन्डिया के कहानीकार मशहुर सलीम-जावेद हैं,कोई मिल गया के राकेश रोशन। मैं कोई मिल गया की बात नही करता क्यूंकि राकेश रोशन जी साहित्यकार नही बल्कि फिल्मकार हैं लेकिन सलीम-जावेद की ख्याति तो साहित्यकार के रूप में भी है। इस तरह मुझे आदरणीया अन्नपूर्णा जी के मोबाइल और ईयरफोन का प्रयोग ज़रा भी अस्वाभाविक नही लगा। मैंने दोनो फिल्मों का उदाहरण इसलिये दिया है कि मेरी टिप्पणी पढ़ने वाले मेरी बात समझ सकें कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। अब मैं अपनी बात पे आता हूँ, जहाँ तक लघुकथा के शिल्प की बात है मैं नितांत अंगूठा छाप हूँ, लघुकथा का कखग भी नही जानता, लघुकथा में निहित भाव अच्छे लगे इसलिये मैंने तारीफ की, अगर कोई मुझसे लघुकथा के शिल्प के बारे में पूछे तो कुछ नही कह पाऊँगा तो बिना जानकारी के मैं शिल्प पर क्या टिप्पणी करूँ??? उदाहरणार्थ इसी मंच पर आदरणीय अशोक रक्ताले सर ने अपनी एक ग़ज़ल में अश्रु की तक्ती 21 की थी, शंका मुझे भी हुई थी, ग़ज़ल के बारे मे मेरे पास मामूली जानकारी ही है इसलिये ओ बी ओ में उनकी शख्सियत को देखते हुये मेरी हिम्मत नही हुई कुछ कहूँ। मैं ओ बी ओ का एक सामान्य सदस्य हूँ सीखने के उद्देश्य से ओ बी ओ में आया था, मुझे लगता है मै अपने उद्देश्य से न भटकूँl मुझे कहना नही आता मेरी बात आपको बुरी लगी हो तो माफी चाहूँगा।
सादर,
आ० वीनस जी! आपसे साझा करना चाहूंगी, मै काफी समानता लिए एक घटना की साक्षी रही हूँ, जिसमे बच्चा अपनी दादी को ही माँ समझता था, उसकी दैहिक माँ ने शारीरिक सौंदर्य की देखरेख मे कभी बच्चे को ममत्व नही दिया| और आज वह बालक किशोर हो गया है किन्तु माँ से उसका कोई बॉन्ड आज भी नहीं है| और उस माँ के यही शब्द सुनने मे आए थे "उफ़्फ़ोह ये बच्चे शरीर कि कसावट बिगाड़ देते है" और तो और उस माँ ने बहुत ही कम मातृत्व-धर्म का पालन किया था, वह भी दवाब मे, सहर्ष कदापि नही| (बस उस घटना मे मोबाइल का रोल नही था| और वहाँ पिता भी कर्तव्यच्युत था )
यहीं रचना पर उल्लेखित एक और प्रतिक्रिया "पश्चिम से प्रभावित निर्दय माँ" के प्रति भी एक प्रतिक्रिया देना चाहती हूँ| मैंने ऐसा भी एक कपल देखा है कि पिता ने दूसरी स्त्री के साथ जोड़ा बना लिया है और माँ किसी अन्य पुरुष के साथ रह रही है| दोनों ही बच्चे का दायित्व नही लेना चाहते| इन हालातों मे बच्चा अपनी दादी के साथ है| और सबसे अचंभित कर देने बात कि वे दोनों पति-पत्नी नितांत अशिक्षित, और एक गाँव के निवासी है| जिनको पश्चिम के बारे मे केवल इतना ही पता है कि वहाँ सूर्य डूबता है|
हालांकि यह घटनाएँ अपवाद स्वरूप ही हैं| किन्तु समाज मे होने का बोध अवश्य करातीं हैं| और हृदय को दुखा भी जातीं है
सादर !!
माँ के ममत्व पर ऐसा प्रहार उचित नहीं है ... मुझे यह स्वाभाविक नहीं लगा ...
समस्त "मानव मनोविज्ञान" "माँ मनोविज्ञान" पर लागू नहीं हो सकते ....
// नहीं संभल रहा तो दे दीजिये जिस किसी को जरूरत हो । मै अपना जीवन इस बच्चे के लिए नहीं खराब कर सकती । ये पोतड़े बदलना उसको नहलाना ओह ! माय गॉड छिः !! मुझसे नहीं होगा । //
पोतड़ा धोना किसी माँ के लिए कभी पहाड़ नहीं हुआ करता ...
आदरणीया अन्नपूर्णा जी, आपके प्रयास पर पुनः साधुवाद. हम पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि आपकी लेखिनी से जो कुछ निकल रहा है या आगे भी निकलेगा वह उद्येश्यपूर्ण ही होगा. कल्पनाशीलता तो हर फिक्शन की मूल है. मेरा इस ओर कोई इंगित या संशय नहीं है.
मैं या कुछ पाठक आपकी प्रस्तुत लघुकथा के उन विन्दुओं की ओर ध्यान खींचना चाह रहे हैं जिसकी ओर ध्यान न देना किसी प्रयास को अतार्किक बना देता है. जागरुक और सुधीपाठक किसी कथा ही नहीं किसी प्रस्तुति को उसकी विधा के मानकों या मानदण्डों की कसौटी पर कस कर ही आँकते हैं. किन्तु, मात्र ’आपसी वाहवाही’ अथवा ’मैं अमुक प्रस्तुति के भाव को समझ गया, बधाई..’ आदि से किसी रचनाकार, या मंच का ही, भला नहीं होने वाला.
इसी कथा पर देखिये, शुभ्रांशु भाई या आदरणीया सावित्री जी या कुछ पाठक या मैं ही इन विन्दुओं पर ऐसी सार्थक चर्चा नहीं करते तो शायद आप ऐसे विन्दुओं से अनभिज्ञ ही रह जातीं ! जबकि यही विन्दु इस विधा के मानदण्ड या मानक हैं.
यही तो इस मंच का उद्येश्य है कि कोरी वाहवाही न कर किसी रचनाकार को विधा के मानकों से परिचित कराना और रचनाकारों को अन्यथा भ्रम में न रखना.
आदरणीया अन्नपूर्णाजी, विश्वास है, मेरे कहे हुए से आप संतुष्ट हो पायीं.
सादर धन्यवाद
आदरणीया सावित्री जी आपने आपने अमूल्य समय से हमारी कथा को समय दिया आपका बहुत आभार , नीचे मैंने आप सभी की उस प्रश्न का उत्तर लिखा है जो आपने किया है , फिर भी कमी लग रही हो तो अवश्य बताएं मै सुधार करूंगी । आप सब को अच्छी लघु कथा दे सकूँ यही मेरा उद्देश्य है अप सबके सहयोग से मै अपने मकसद मे कामयाब रहूँगी ऐसी आशा है ।
आदरणीय सौरभ जी ये लघु कथा सिर्फ कल्पना पर आधारित हे जो कि आज की ही कुछ घटनाओं को देखते हुए कथानक लिया गया है जिसमे एक आधुनिक माँ इन सभी समान का उपयोग करती है वे अपने फिगर , कैरियर और स्वतन्त्रता अपितु स्वच्छन्ता कहना उचित होगा के साथ कोई सम्झौता नहीं करना चाहती । ऐसी माँ अपनी युवावस्था मे तो अपने स्वच्छंद जीवन मे किसी प्रकार का दखल नहीं बर्दाश्त करती है । ऐसे कई उदाहरण हम आप देखते सुनते ही है । अभी हाल ही मे मैंने ऐसा ही एक वाकया देखा जिसने मुझे यह कथा लिखने को विवश किया । जिसका अंत मैंने कल्पनात्मक लिया है कि जो माँ अपने ही बच्चे को समय नहीं दे पा रही है वो भी सिर्फ अपनी क्षणिक खुशियों की खातिर , ऐसी माँ क्या बच्चे से कोई उम्मीद रख सकती है ।
फिर भी यदि कहीं कमी है तो मै उन कमियों को अवश्य दूर करूंगी । आपकी प्रतिकृया अपेक्षित है सादर ।
आदरणीय अन्नपूर्णा जी,आपकी ये लघुकथा अच्छी तो है,किन्तु इसमें प्रयुक्त ईयरफोन और मोबाइल और फिर बच्चे का बड़ा होना एवं माँ का वृद्ध होना,ये सभी समय के मध्य भ्रम उत्पन्न करते हैं क्योंकि यदि देखा जाये तो मोबाइल आदि वस्तुएं इतनी अधिक पुरानी नहीं हैं कि इस कथा के लम्बे समयांतराल को सटीक दिशा दे सकें।कृपया इस ओर ध्यान दें और इसे अन्यथा न लें।
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