शब्द कोष से संकलित
क्लिष्ट शब्दों का समुच्चय
गद्यनुमा खण्डित पक्तियों में
शब्द संयोजन
कथ्य और प्रयोजन से कोसों दूर
लक्ष्यहीन तीरों के मानिंद
बिम्ब और प्रतीक
कही तो जा धसेंगे
बस
वही होगा लक्ष्य
फिर.......
पाठक का द्वन्द्ध
बार-बार पढ़ना
पग-पग पर अटकना
समझने का प्रयत्न
गुणा भाग, जोड़ घटाव
सुडोकू सुलझाने का प्रयास
और अंततः
एक प्रतिक्रिया
नि:शब्द हूँ ।
***
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट =>लघुकथा : छवि
Comment
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी, रचना में रचनाकार की अपनी सोच होती है, यह आवश्यक नहीं कि वह सार्वभौमिक हो, आपको रचना पसंद आयी इसके लिए ह्रदय से आभार प्रेषित है |
राहुलदेव भाई, शब्दों का स्वाभाविक स्वरूप कौन निर्धारित करेगा ?
शिवानी की कहानियाँ और उपन्यास जिस भाषा में हैं, भाषायी तौर पर वो निर्मल वर्मा के उपन्यासों से अलग है न ! अज्ञेय की कवितायें और उपन्यास अमरकान्तजी के कहे से बिल्कुल भिन्न है न ! नरेश मेहता की कवितायें भी देखियेगा. वे अत्यंत संप्रेषणीय हैं लेकिन कइयों को बहुत क्लिष्ट लगती हैं. और भवानी भाई (भवानी प्रसाद मिश्र) के गीतों से पूरी तरह अलग हैं. नागार्जुन का कहा हुआ नीरज के कहे से बिल्कुल भिन्न है.
जिनका-जिनका मैंने नाम लिया है उनसभी का पाठकवर्ग बहुत-बहुत बड़ा है. किसे कहेंगे कि वे संप्रेषणीय नहीं हैं ?
तात्पर्य यह कि यह कौन निर्धारित करेगा कि कौन सही और कौन अक्लिष्ट रचनाकार है ?
:-))))
आपकी इस अतुकांत प्रस्तुति में विचारों का जो क्रम है वह अनुकरणीय है, प्रशंसनीय है । इस विचारक्रम से मैं कहीं भी अपने आप को अलग नहीं कर पाया । सादर
//इस कविता में अतुकांत लिखने वालों पर तो कतई कोई ऊँगली नहीं उठाई गई है. //
आदरणीय योगराज भाईजी, आपने सही कहा. ऐसा मगर कैसे सोचा गया है ! मैं अन्यान्य टिप्पणियों को भी देख गया.
आपकी बात भी सर्वथा उचित है कि रेल को लौहपथगामिनी की संज्ञा क्यों ? ऐसी शब्दावलियों की क्या आवश्यकता ? सही है.
मग़र, ऐसा घिनौना मज़ाक साठ के दशक में हिन्दी भाषा पर सरकारी प्रयासों का नतीज़ा था जो रामविलास शर्मा जी और उनके समकक्ष या उनके बाद के उन विद्वानों द्वारा बलात् किया था जो हिन्दी शब्दावलियों के लिए नियुक्त किये गये थे. किन्तु, यहाँ चर्चा साहित्यिक और भाषायी शब्दों की हो रही है न कि कृत्रिम शब्दावलियों की. यह ग़ौर करने वाली बात है कि ऐसे प्रयास रेसिप्रोकल होने के कारण कई बार चल निकलते हैं.
हम कोई बात करें तो यह भी देखें कि साहित्य ही नहीं साहित्य की धार कैसे है.
क्या कारण है कि कई पाठक ऐसी कई कविताओं के शाब्दिक स्वरूप को ही नहीं बल्कि उसके मर्म तक को समझ कर अपनी बातें कह जाते हैं और रचना से संवाद स्थापितहो जाता है. जबकि कई पाठक उसी कविता के पल्ले तक नहीं पहुँच पाते और एक बदकारी सी प्रतिक्रिया ज़ाहिर कर देंगे - क्या बकवास है ! .. कुछ तो कारण अवश्य होगा.
स्पष्ट है, यहाँ अँधेरे में हाथ-पैर मारने की बात कत्तई नहीं हो रही है.
चूँकि, प्रतिक्रियाओं में स्पष्टता बनी रहे अतः मैंने तथ्य को स्पष्ट करना उचित समझा. यह अवश्य है कि गनेस भाई की रचना सशक्त है और मुद्दे को सार्थक रूप से दायित्व के साथ उठा रही है. लेकिन, इस रचना के बरअक्स जो अन्य मुद्दे हैं जिनकी चर्चा हुई है, उन पर दष्टि न देना महत्त्वपूर्ण तथ्य को मात्र भँड़ास निकालने की श्रेणी में रख देगा.
साथ ही, हम साहित्य की यदि बात करते हैं तो हमारा दायित्व भी महती है. कि, साहित्य की सभी विधाओं पर मात्र एक रचनाकार के तौर पर ही नहीं, साहित्य संवर्धन हेतु अन्यान्य विधाओं के लिए एक ज़िम्मेदार स्तम्भ के रूप में हम किस तरह के बर्ताव में हैं. सर्वोपरि, वर्तमान साहित्य के बड़े परिदृश्य में हम कहाँ हैं और उस विस्तृत वातावरण में हमारी क्या पहुँच है.
सादर
मैं यदि सही समझा हूँ तो इस कविता में अतुकांत लिखने वालों पर तो कतई कोई ऊँगली नहीं उठाई गई है. यदि ऐसा होता तो स्वयं भाई गणेश बागी जी अपनी बात अतुकांत कविता के माध्यम से क्यों कहते ? भाषा कलिष्ट नहीं होती इस बात से मुझे भी इत्तेफ़ाक़ है, लेकिन यहाँ बात कलिष्ट शब्दावली और जान बूझकर कर उसके प्रयोग की हो रही है, और मेरी समझ ऐसी बात करना कोई अपराध तो है नहीं. बतौर फैशन लेटिननुमा हिंदी शब्दावली का प्रयोग कर लिखी हुई खुली कविता के पाठक वर्ग का दायरा कितना सिकुड़ा सिमटा होगा यह सोच कर डर लगता है. अब अगर "लौहपथगामिनी" बुद्धीजीवियों की और "रेल" सड़क के लोगों की भाषा का हिस्सा है तो मैं तो सड़क छाप ही रहना ही पसंद करूँगा।
बहुत साल पहले किसी ने एक किस्सा सुनाया था. एक लड़के ने किसी विद्वान आदमी से पूछा कि बगुला कैसे पकड़ा जाये। तो उस आदमी ने कहा कि बहुत आसान है. सवेरे सवेरे खेतों में जायो वहाँ बहुत से बगुला बैठे मिलेंगे। धीरे धीरे एक के पीछे पहुँचो और धीरे से मोमबत्ती जला लो, अब उस मोमबत्ती का मोम बगुले के सर पर टपकायो, जब मोम बगुले की आँखों में पड़ेगा तब वह देख नहीं पायेगा अत: उड़ भी नहीं सकेगा। बस जब वो फड़फड़ाये उस को पकड़ लो - वेरी सिम्पल !!! तब उस लड़के ने कहा कि इतनी लम्बी कवायद की क्या ज़रुरत है ? जब उसके पीछे पहुँच ही गए तो लपक कर उसको पकड़ ही न लिया जाये ? इस पर उस सयाने आदमी ने कहा - "पकड़ तो लोगे, मगर इस में कलाकारी कहाँ है?" आदरणीय साथियो, अब यह फैसला हम सब के विवेक पर निर्भर है कि बगुला किस तरह पकड़ना है.
बहरहाल लेखक ने जो सन्देश इस कविता के माध्यम से देना चाहा है वह शीशे की तरह साफ़ और शफ्फाक़ है, अत: रचना अपने मक़सद में पूरी तरह सफल रही है. इस सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बहुत मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें भाई गणेश बागी जी.
आदरणीय गणेश बागी भाई जी , सटीक रचना के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ !!!! साथ ही ये कहना भी ज़रूरी है कि आपकी इस रचना ने हम जैसे सीखने वालों को किसी हद तक डरा भी दिया है , रचना करने से भी और प्रतिक्रिया देने भी !!!!
गनेस भाई के कहे से पूर्णतः हामी है. प्रस्तुत कविता में सार्थक विचारों को मिली अभिव्यक्ति सटीक प्रतीत हुई है. आपकी इस कविता में रचनाधर्मिता पर उपयुक्त बहस छेड़ने के कई-कई विन्दु समाहित हैं. जिसे आगे बढ़ाया जा सकता है.
आपको बधाई व हार्दिक शुभकामनाएँ. किन्तु, साथ ही, कई प्रश्न भी चुहचुहाये हुए कपाल पर बह आये हैं, उन पर भी दो शब्द .. :-)))
अपने मंच के पुराने सदस्य और संप्रति मैथिली भाषा में ग़ज़ल को लेकर व्यापी अतुकान्तता के विरुद्ध सरगर्भित कार्य कर रहे चिंतक आशीष अनचिन्हार से कल ही लम्बी बात हो रही थी.
उनकी एक बात जो इन्हीं विन्दुओं पर थी और मुझे गहरे छू गयी वह पाठकों से साझा करना उचित समझता हूँ.
आपका कहना था, "साहित्य में सामान्य, सरल और सहज भाषा और उसके अनुसार अपनाये जाने वाले शब्दों की बातें करने वाले इन शब्दो और ऐसी भाषा को ले कर वस्तुतः सोचते क्या हैं, या, ऐसी किसी प्रतिती का आउटकम क्या हो सकता है, इसके प्रति कितने गंभीर हैं ?.. सबसे सामान्य, सरल और सहज भाषा तो सड़क की भाषा होती है ! चौराहों की भाषा होती है ! क्या साहित्य की भाषा सड़क छाप कर दी जाये ? यह स्वीकार्य होगा ? फिर, पंजाबी या भोजपुरी या मैथिली आदि भाषाओं में आज के बहुसंख्यक गीतों को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों ? वे कौन हैं जो इन गीतों के विरुद्ध चीखमचिल्ली मचाते हैं ? उत्तर वही मिलेगा, साहित्य और समाज के तथाकथित चिंतक जो भाषा को दुरूहता से बचाने का चोंचलापन भी दिखाते हैं और आमफ़हम भाषा के नाम पर जब रचनाओं में घिनौना फूहड़पन और अभिव्यक्ति में हल्कापन व्यापता है तो चिंतित होने लगते हैं.. "
ग़ज़ब ! भाई आशीषजी के इस सटीक विन्दु के कई-कई आयाम हैं और उनके कई अर्थ. इस क्रम में मुझे उनकी कही गयी कई बातें बड़ी सटीक लगीं थीं. उन तथ्यों को फिर कभी मौका मिला तो अवश्य प्रस्तुत करूँगा.
लेकिन यह अवश्य है कि भाषा का सरलीकरण किसी समाज के साहित्य को कैसे-कैसे गर्त दिखाता है इसकी भी कुछ जानकारी हम आजतक के इतिहास से क्यों न लें ? ऐसी बानग़ियों से वाकिफ़ होना भी उतना ही ज़रूरी है.
वस्तुतः, विचारों और मनोदशाओं की उच्च अभिव्यक्तियों को यदि तथ्यपरक शब्द नहीं मिले तो संप्रेषणीयता ही प्रश्नों के घेरे में होगी. क्लिष्टता शब्दों में कभी नहीं होती, भाषा दुरूह नहीं होती, बल्कि वह पाठक-श्रोता के मन में होती है जो उसकी स्वयं की वैचारिकता और अध्ययन की कमी का द्योतक है. इसे समझने की आवश्यकता है. जैसा विषय वैसे उसके शब्द और उसकी भाषा. इसे विज्ञान या तकनीकी विषय के विद्यार्थी से अधिक जानकार और कौन हो सकता है ? उन विषयों से इतर पाठक उन पंक्तियों को समझ ही नहीं सकते, जबकि सारा कुछ सामान्य भाषा में ही लिखा होता है.
कबीर, नागार्जुन, अदम या सूर और तुलसी जैसों को साहित्य में स्थापित मानक मानने की चाहना तो लुभावनी है. लेकिन तथाकथित भाषा के प्रति अति चिंतित विद्वान क्या यह समझने को तैयार हैं कि साहित्य मात्र कथ्य नहीं होता, बल्कि वस्तुतः मंतव्य होता है ? मंतव्य की अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत गहन समझ की दरकार होती है जो अद्वितीय मनस या फिर विशद अध्ययन से ही संभव है. उस परिप्रेक्ष्य में एक प्रासंगिक प्रश्न उठता है कि, वाक्यों में वचन-भेद, लिंग-भेद या सामान्य भावों तक के लिए सार्थक शब्द तक न ढूँढ पाने वाले श्रोता-पाठक या तथाकथित रचनाकार जब भाषायी दुरूहपन की बातें करते हैं तो संप्रेषणीयता को वमन होने लगता है. साहित्य और रचनाएँ क्या ऐसों के लिए मानक न बनायें ?
साथ ही, यह भी अवश्य है कि कविता की वैचारिकता के नाम पर शाब्दिकता की दुरूहता को पाठकों पर लादने वालों को दरकिनार करना ही होगा. गनेस भाई को पुनः बधाई कि आपने कइयों के अध्ययन और सोच की सीमाओं और उनसे उपजी खुन्नस को उद्धृत हुए विन्दु दिये !
शुभ-शुभ
sundr ktaaksh atukaant vishy pr ....apne lakshy men safal rachna ke liye haardik badhaaee
वाह! बहुत सही तरीके से आपने अतुकांत लिखने वालों की क्लास ली है आ० बागी जी! कहते है कि जहाँ भीड़ मे एक पत्थर उछाल फेंको, और जिसे लगे वही कवि| और अब तो ये आलम है कि मुट्ठी भर कंकरियाँ भीड़ मे फेंक दो, सबको एक न एक लगेगी, सभी कवि| और इन कवियों ने तो कविताई को नुमाइश मे बिकने वाला हर माल २१ रूपय का समझ रखा है| अपने निजी जीवन से रोज की खुन्नस के लिए श्रोता खोजते हैं| बुखार हुआ तो कविता, उधार वापस नही मिला तो कविता, सरसता और उद्देश्यगत काव्य को ताक रख अतुकांत कविता के पत्र को अपनी दैनंदिनी बना रखा है इन महाकवि ने और बिना काम की रोचकता उत्पन्न करने की कोशिशें करते हैं|
खैर कहते भी है कि ये कविताओं कि उम्र भी जल्दी चुक जाती है|
आपको बधाई आपने साहित्य के संदर्भ मे दिलेरी से यह विषय चुना!!
और अंततः
एक प्रतिक्रिया
नि:शब्द हूँ ।.............. हा हा हा ! सही कहा ! जब कुछ समझ ही नहीं आएगा तो निशब्द ही हूँ ! :-))))))))
वाजिब चिंता ! असहज और विरोधाभाषी बिम्ब , बिना विराम और अल्पविराम का ध्यान दिए पंक्तियों का संयोजन , क्लिष्ट शब्द के प्रयोग और काफी हद तक कविता के अप्रत्यक्ष ने अत्यंत गहन और संदर्भित होकर भी कविता को लगभग अर्थहीन सा बना दिया है ! ध्यान रखने योग्य सीख ! मेरे लिए तो विशेषकर ! आपका आभार ! :-))))
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online