हां ठीक था, अर्जुन !
तुम अपने युयुत्सु परिजनों पर
शस्त्र न उठाते i
उन्हें अपने गांडीव की प्रत्यंचा
की सीध में न लाते i
तुम्हारा यह निर्णय ठीक होता या न होता
हां सभी मर जाते तो शवो पर कौन रोता ?
किन्तु यह क्या---
तुम्हारे शरीरांग कांपे क्यों ?
वदन सूखा क्यों, दशन चांपे क्यों ?
वेपथु क्यों हुआ, क्यों हुआ लोमहर्षण
अभी तो शंख घोष था, नही था अस्त्र वर्षण
तब भी तुम्हारे हाथ से गांडीव खिसका
तुम्हारी र्त्वेचा जली तो दोष किसका ?
तुम 'अवस्थानुम न शक्नोमि ' हो गए
तुम्हारा सिर चकराया, शून्य में खो गए
इतने सारे संचारी तुम्हारी पराजय लिखने लगे
तुम्हे अपने ही भय से अमंगल दिखने लगे
और भीष्म, द्रोण करते थे गर्व तुम पर
तुम थे अपने युग के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
नहीं होता विश्वास
जो हो कृष्ण का सखा खास
वह इतना दुर्बल, इतना शक्तिहीन
तुममे न आत्मबल न आशा नवीन
तो फिर यह युद्ध जीता किसने?
क्या तुमने नहीं, कृष्ण ने ?
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीय निगम जी
आपके स्नेह से आप्यायित हुआ i
सादर i
मित्र शिज्जू शकूर जी
आपकी बधाई और रचना को मान देने का बहुत बहुत आभार i
मै भी आपकी लेखनी का फैन हूँ i
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ....... |
आदरणीय सौरभ जी
बस ऐसे ही ज्ञान वर्धन करते रहिये i
सादर i
आदरणीया coontee मुखर्जी जी
आपका सादर आभार i
प्रिय रामशिरोमणि पाठक जी
आदरणीय सौरभ जी ने युयुत्सु के अनेक अर्थ बता दिए है जिनमे मेरा अर्थ युद्ध के लिए उद्दत से है i अर्जुन जहाँ तक अपने परिजनों पर अस्त्र नहीं उठा रहे थे वहा तक तो ठीक था पर -----
आशा है आपका समाधान हो गया होगा i आपका आभार i
युगों से मंथन की निरंतरता के बावजूद प्रश्न अनुत्तरित ही है, उत्कृष्ट रचना हेतु बधाईयाँ............
अच्छी रचना आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर बधाई आपको
युयुत्सु .. युद्ध के लिए उत्सुक, युद्ध हेतु तत्पर ..
युयुत्सु .. धृतराष्ट्र का पुत्र, दुर्योधन का सौतेला भाई.. पाण्डवों का शुभचिंतक, उनका पक्षधर
बहुत सुंदर प्रश्न उठाया है आपने.विचारणीय है.
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