'साहेब हमरी किडनी ख़राब है I इलाजु चलि रहा है I उनकी जगह हमरे लरिकऊ का नौकरी तो दिहेव मालिक पर अकेलु लरिका नोडा (नॉएडा) चला जाई तो हमार देखभाल कौन करी I इसै हियें लखनऊ माँ जगह दै देव साहेब , नहीं तो ई बुढ़िया मरि जाई I
'हाँ साहेब !" बेटे ने भी हाथ जोड़कर मिन्नत की I
' ठीक है, तुम लोग बाहर जाओ I मै कुछ करता हूँ I"
माँ-बेटे बाहर चले गए I 'थोड़ी देर में माँ को बाहर छोड़ कर बेटा फिर अन्दर आया I
'येस?' - साहेब ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा I
'सर, मेरी माँ पढ़ी-लिखी नहीं है i मंदबुद्धि है I उसे पता नहीं है कि यहाँ लखनऊ में कोई कैरियर नहीं है I साहेब मुझे नॉएडा में ही ----'
मौलिक /अप्रकाशित
(संशोधित)
Comment
सुरेन्द्र कुमार जी
आपका बहुत धन्यवाद i
आदरणीय डॉ गोपाल जी छोटी सी लघु कथा कितना बड़ा दृश्य दिखा गयी आज लगभग हर घर के बूढ़ों की दुर्दशा इस कारण से हो जाती है उनकी परवाह करने वाला आस पास कोई नहीं। बहुत खूब बधाई
भमर ५
आदरणीय सौरभ जी
आपका स्नेह पाकर कृतार्थ हुआ i इतनी भावपूर्ण टिप्पणी i सादर आदरणीय
सुभ्रांशु पाण्डेय जी
आपका सादर आभार i
आदरणीय गोपाल नारायनजी, सही है, ज़िन्दग़ी थम नहीं जाती, न ही ढहते ढूहो की अमानत मात्र होती है. लेकिन यह भी सही है कि इन्हीं ढूहों की तबकी जवान छाँवों में हर ज़िन्दग़ी ने आँखें खोली हुई होती हैं और अपने थपकते पैरों को साधना सीखा हुआ होता है. जीवन की ज़द्दोज़हद कृतज्ञता ज्ञापन से भी महरूम न कर दे, ऐसा स्वर्ग भी नहीं चाहिये.
बूढ़ी आँखों की बेबस उम्मीद और भविष्य के प्रति बनी अदम्य जवान आशा के बलवती होने के मध्य उभर रहे असंतुलन को अपनी लघुकथा में सुन्दरता से पिरोया है आपने.
बधाई हो.
सादर
आदरणीय गोपाल जी,
बहुत सुन्दर कथा. माँ की इच्छा लखनऊ और बेटे की नोएडा.. इस द्वन्द्व को बखूबी उभारा है.
सादर.
महनीया प्राची जी
मै सकारात्मक सुझाव का सदैव स्वागत करता हूँ i अनुपालन भी करता हूँ i स्वयं को मांजता भी हूँ i हर्ष इस बात का है की सभी विद्वान बड़े सहयोगी और मार्ग दर्शक है i आदरणीय बागी जी, प्रभाकर जी , सौरभ जी और आप तथा कुछ अन्य की बातो को और साथ ही आप सब की रचनाधर्मिता को मै काफी गंभीरता से लेता हूँ और सम्मान भी देता हूँ i हम सभी अथाह की ही तो थाह लेने की कोशिश करते है और अपने अनुभव बांटते है i आपका शत-शत आभार i आदरणीया i
राजेश कुमारी जी
आपकी भावनाओ का स्वागत और समादर i बहत धन्यवाद i
आदरणीया अन्नपूर्णा जी
शत-शत आभार i
आज के नवयुवको के मन में, तरक्की के लिए बीमार माँ को छोड़ बड़े शहर जाने की लालसा को सार्थकता से दिखाया है..
लघुकथा गठन पर आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय ने बहुत ही सम्यक सुझाव दिए हैं.. जिस तरह पंक्तियों को विशेष उद्दृत करके स्पष्ट किया है.. इससे लघुकथा विधा पर लिखने वाला हर नवरचनाकार आसानी से शिल्पगत बारीकियां सीख सकता है.
सादर.
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