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कष्ट सहे जितने यहाँ,डाल समय की धूल|

अंत भला सो सब भला ,बीती बातें भूल||

 

विद्या वितरण से खुलें ,क्लिष्ट ज्ञान के राज|

कुशल तीर से ही सधे ,एक पंथ दो काज||

 

कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|

चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||

 

जिसके दर पर रो रहा , वो है भाव विहीन|

फिर क्यों आगे भैंसके,बजा रहा तू बीन|| 

 

सफल करो उपकार में,जीवन के दिन चार|

अंधे की लाठी पकड़ ,सड़क करा दो पार||

        

विटप बिना जो नीर के ,जड़ से सूखा जाय|

सावन का अंधा उसे ,हरा हरा बतलाय||

 

बुरी बला लालच समझ ,मन का तुच्छ विकार|

जितनी चादर ढक सके ,उतने पैर पसार||

 

तू देखेगा और का ,भगवन तेरा हाल|

बस करके नेकी यहाँ ,दरिया में तू डाल||

 

 लाया क्या कुछ साथ तू ,जो ले जाए साथ|

  छूटेगा सब कुछ यहाँ ,जाना खाली हाथ|| 

 

 (पुच्छल)

ओबीओ की भीड़ में, रचना  खो ना जाय|

जैसे मुँह में ऊँट के ,जीरा मिल ना पाय||

**************************

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 11, 2013 at 8:00pm

भावपूर्ण दोहों के लिए बधाई हो मान्या i


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 11, 2013 at 7:56pm

"पूँछ ऑफ़ दोहावली", पहुँचाती है पीड़,
ख़ुद के ही परिवार को, कह डाला क्यों भीड़.

Comment by ram shiromani pathak on December 11, 2013 at 7:31pm

बहुत ही सुन्दर दोहे,बहुत ही सुन्दर प्रवाह ,इस  अनुपम  दोहावली  हेतु हार्दिक बधाई आपको आदरणीया राजेश कुमारी जी। ...   सादर 

कृपया ध्यान दे...

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