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सिलसिले उनके छिपे, कांटो से भी मिलते गये
फिर भी ऐसा क्यों हुआ वो फूल सा खिलते गये
राह मे दुश्वारियां थीं जब चले थे घर से हम
बिन रुके चलते रहे तो रास्ते मिलते गये
हम भी फौलादी पकड़ रखते थे अपनी बात पर
प्यार से हमको हिलाया और हम हिलते गये
या तो जादू था किसी का या किसी का ख़ौफ़ था
बोलने वाले सभी के होंठ क्यों सिलते गये
चीज़ क्या है प्यार परवाने बतायेंगे सही
जो शमाँ के पास आये, आग में मिलते गये
लौट के आये तो पाये कुछ नये ही शख़्स उनमें
वो सभी जो ख़ुद के भीतर ख़ुद से ही मिलते गये
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
बहुत सुन्दरे ग़ज़ल हुई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
या तो जादू था किसी का या किसी का ख़ौफ़ था
बोलने वाले सभी के होंठ क्यों सिलते गये ----शानदार शेर
चार जगह मिलते आने से थोडा अजीब लग रहा है
सिलसिले उनके छिपे, कांटो से भी मिलते गये
फिर भी ऐसा क्यों हुआ वो फूल सा खिलते गये
राह मे दुश्वारियां थीं जब चले थे घर से हम
बिन रुके चलते रहे तो रास्ते मिलते गये
आदरणीय गिरिराज जी हर बार की तरह ये रचना भी लाजवाब है। सभी शेर पसंद आए
बहुत मुबारकबाद आपको उम्दा गज़ल के लिए ....
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