1)
आपस के संवाद में, कितने ही मंतव्य !
कुछ तो हैं संयत-सहज, अक्सर हैं वायव्य
अक्सर हैं वायव्य, शब्द से चोट करारी
वैचारिक प्रतिकार, अहं ने मति भी मारी
वाक्य-वाक्य में व्यंग्य, ढंग क्या हैं मानस के ?
हे ! मानव समुदाय, यही क्या सुख आपस के ?
2)
ऊँचा उठता है धुआँ, नीचे जाती धार
पर सचेत-मन व्यक्ति का, यथा उचित व्यवहार
यथा उचित व्यवहार, तभी वह संसारी हो
’सीख - सिखाना’ कर्म साधना सुखकारी हो
चर्चा, नहीं विवाद, इसी में सार समूचा
शिष्ट बुद्धि, सद्भाव, उठाते जन को ऊँचा !
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया वन्दनाजी, आपने बहुत ही सहा कहा है, कि परिवार को एक और नेक रखने में ऐसे भावों की वाकई जरूरत होती है.
आपकी संवेदना को यह रचना संतुष्ट कर पायी इस पर मेरा मन भी संतुष्ट है.
शुभ-शुभ
बहुत-बहुत धन्यवाद, वीनस भाई. आपको छंदबद्ध रचना रुचिकर लगी.
आपकी त्वरित टिप्पणी का अपना ही वज़न है. और आपकी प्रतिक्रिया आयी भी तो इसी छंद में !
अब न कहियेगा कि काव्य की अन्य विधाओं में आप कोरे हैं. अब ई ना मनायी. .. :-))))
मान गये उस्ताद, मान गये ! आपको और आपकी संवेदनशीलता को !! ..
(सरकारी दूरदर्शन पर आते एक पुराने ऐड से प्रभावित इस पंच-लाइन के लिए उस ऐड वालों से क्षमा.. हा हा हा.. )
बहुत अच्छा संदेश दिया है आपने सौरभ जी.सादर
ऊँचा उठता है धुआँ, नीचे जाती धार
पर सचेत-मन व्यक्ति का, यथा उचित व्यवहार
यथा उचित व्यवहार, तभी वह संसारी हो
’सीख - सिखाना’ कर्म साधना सुखकारी हो
चर्चा, नहीं विवाद, इसी में सार समूचा
शिष्ट बुद्धि, सद्भाव, उठाते जन को ऊँचा !
आदरणीय सौरभ जी क्या खूब लिखा है. आपकी इस रचना को मैं भी अपने जीवन मैं उतारने कि कोशिश करुगा। एक खूबसूरत रचना के लिए बधाई।
बहुत ही सुंदर एवं संदेशपरक प्रस्तुति आपने दी है आदरणीय, पहले समझ नहीं सका इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी, फिर इधर-उधर चहलकदमी की तो समझा । खैर, आपकी रचना तक ही सीमित रहूंगा । आपकी लेखनी को नमन, सादर
आदरणीय सौरभ भाई, व्यवहारिक सच्चाई को गम्भीरता से सिखाती आपकी कुंडलिया बहुत सुन्दर लगी !! आपको कोटिशः बधाई !!!!
सबके अन्दर जी रहा, मेरा, मै का भाव
वही डिगाता है सदा, आपस का सदभाव
आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, बहुत सुन्दर संदेशात्मक कुण्डलिया छंद दोनों ही बहुत उचित शिक्षा दे रहे हैं. सादर.
कह दी प्रभुवर आपने, गुरुवत सारी बात |
दो छन्दों में जोड़ते, तरुवर के सब पात ||
भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.... |
वाह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर सार्थक सन्देश देती हुई कुंडलिया बधाई- बधाई आदरणीय ,सही वक़्त पर सही सृजन
कुछ मैं भी कह दूँ ---
शब्दों के दंगल सजा ,करें वार पर वार
खिंच गई दोनों तरफ ,क्रोध भरी तलवार
क्रोध भरी तलवार,सुधी जन आगे आये
कुंडलियों की मार ,पड़ी तब ही घबराए
विद्या का है मंच ,नहीं ये कोई जंगल
काव्य पुहुप के हार ,सजें शब्दों के दंगल
"बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी" को ध्यान में रखते हुए बस इतना कि मानवीय व्यव्हार के सम्बन्ध में मानक स्थापित करती हुई रचना ! इन अनुभवों को कर्म में स्थान देना चाहिए ! सादर !
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