2122 2122 2122 2122
ले धनक से रंग रंगोली बना ले तू खुशी से
बेरहम है ये जहाँ क्यों मांगता है आदमी से ॥
तेरे ग़म तेरे ही हैं ये मानता तू क्यों नहीं है
कब तलक सोये रहेगा जाग जा अब बेखुदी से ॥
जो ज़ुबाँ रखते हैं वो, चुप्पी सभी ओढ़े मिले तो
बेज़ुबाँ कोई मिले तो पूछ उनकी खामुशी से ॥
कुछ मुझे तू ,कुछ तुझे मै, आ समझ लें बैठ संग में
कुछ न पाया है किसी ने बेवज़ह रस्साकशी से ॥
जब इबादत से न कोई रास्ता मुझको मिलेगा
तब सहारा माँग लूंगा मै भी इक दिन मयकशी से ॥
सब्र थोड़ा, थोड़ी रहमत हो ख़ुदा की, सब मिलेगा
इस तरह कुछ भी न पाया है किसी ने सरकशी से ॥
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीय राजेश भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥
आदरणीय वीनस भाई आपका शुक्रिया , मै अभी तक व्याकरण की गलती ही खोज रहा था , मै अभी बह्र ठीक कर लेता हूँ ॥ आपका शुक्रिया ।
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वो ज़ुबाँ रख/ ते जो , चुप्पी / सभी ओ / ढ़े मिले तो
आदरणीय मिसरा बेबहर है
सब्र थोड़ा, थोड़ी रहमत हो ख़ुदा की, सब मिलेगा
इस तरह कुछ भी न पाया है किसी ने सरकशी से ॥
बहुत सुंदर भाव आपने उकेरे हैं आदरणीय, सादर
आदरणीय बड़े भाई गोपाल भाई , आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीय उमेश भाई , सराहना और उत्साह वर्धन क्रे लिये आपका आभार ॥
आदरणीय वीनस भाई , मिसरे पर आपका इशारा समझने के प्रयास मे हूँ , अगर आपको उचित लगे तो आप बता दें , अब तक नही समझ पाया हूँ । इशारे के लिये आपका शुक्रिया ।
आदरनीय राम भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
मित्रानुज
अति सुन्दर i साधुवाद i बेहतरीन गजल i
बेवजह रस्साकशी ----- क्या बात है ?
वाह वाह अच्छी गज़ल पढने को मिली बधायी हो सर
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