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सूरज को पिघलते देखा है

सूरज को पिघलते देखा है

वक्त के साथ रिश्तो को बदलते देखा है ।

दौलत के लिये अपनो को लडते देखा है ॥

लिये आग चढा था जो सुबह आसँमा पे

शाम उस सूरज को पिघलते देखा है ।।

तैरा था जो लहरो के विपरीत हरदम ।

साहिल पे उस जहाज को डूबते देखा है ।।

हुआ करती थी जहाँ संस्कारो की बाते ।

हाँ आज मैने उन घरो को टूटते देखा है  ॥

बैठा था कल तक जो किस्मत के भरोसे

उस  शख्स को  आज  हाथ मलते देखा है ॥

माँज के बर्तन जिसने पाला था बच्चो को ।

घर के बाहर उस माँ को  सोते देखा है ।।

इठलाया था जो देवो के शीश पे चढ के ।

उस फूल को पैरो से कुचलते देखा है ॥

मद लोभ अन्हकार से भला बचा है कौन ।

रावण कौरब कंस को मरते देखा है  ॥

"मौलिक व अप्रकाशित" 

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Comment by बसंत नेमा on December 20, 2013 at 11:17am

आदरणीया मीना जी, आदरणीया  सविताजी , आदरणीया राजेश कुमारी जी  सादर नमन  ...  रचना को आप का आशीष मिला तहेदिल से शुक्रिया ...धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 20, 2013 at 11:02am
आदरणीय बसंत भाई , सुन्दर रचना के लिये बधाई ॥

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 19, 2013 at 5:20pm

सुन्दर मार्मिक प्रस्तुति ,अत्याचारियों का अंत भी होते देखा है बहुत खूब 

Comment by savitamishra on December 19, 2013 at 3:38pm

बहुत सुन्दर

Comment by Meena Pathak on December 19, 2013 at 1:26pm

बहुत सुन्दर गज़ल .. बधाई आप को आदरणीय 

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