हैं कपड़े साफ सुथरे से , पड़ा काँधे दुशाला है
शहर में भेडि़यों ने आ, बदल अब रूप डाला है
कहानी रोज पापों की, उघड़ कर सामने आती
किसी ने झूठ बोला था, ये दुनिया धर्मशाला है
समझ के आम जैसे ही, आमजन चूसे जाते नित
बनी ये सियासत अब, महज भ्रष्टों की खाला है
मथोगे गर मिलेगा नित, यहाँ अमृत भी पीने को
है सिन्धु सम जीवन, कहो मत विष का प्याला है
किया सुबह शाम झगड़ा , रखी वाणी में दुत्कारें
'मुसाफिर' हमने ही सुख को, दिया घर निकाला है
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
मतला और पहला शेर कहन और शिल्प की जिस ऊँचाई पर हैं बाद के शेर उतने ही फैल गये हैं. इन दोनों के लिए तो खूब बधाई कह रहा हूँ.
आप १२२२ १२२२ १२२२ १२२२ के वज़्न पर अपने अन्य शेर के मिसरे भी कस डालिये.
हार्दिक धन्यवाद
मथोगे गर मिलेगा नित, यहाँ अमृत भी पीने को
है सिन्धु सम जीवन, कहो मत विष का प्याला है
किया सुबह शाम झगड़ा , रखी वाणी में दुत्कारें
'मुसाफिर' हमने ही सुख को, दिया घर निकाला है.... वाह आदरणीय धामी जी .बहुत ही बढिया .. बधाई प्रेषित है ..
आदरणीय लक्ष्मण भाई जी भाव पक्ष बेहद शानदार है बह्र में मुझे गड़बड़ी लग रही है, मेरे हिसाब से आपने इसे १२२२, १२२२,१२२२,१२२२, के वज्न पर बाँधा है इस लिहाज से आपने शहर की मात्रा 12 गिनी है भाई जी शहर की मात्रा २१ होती है. एक इस्लाह से आप बेहतरीन ग़ज़ल कह सकते हैं बस थोडा सा ध्यान दीजिये ग़ज़ल की बातें जरुर पढ़िए.
मथोगे गर मिलेगा नित, यहाँ अमृत भी पीने को
है सिन्धु सम जीवन, कहो मत विष का प्याला है............बहुत सुंदर.
आ0 लक्ष्मण जी धामी जी सूंडआर के लिए शुभकामनायें , अनुरोध है कि बह्र भी साथ मे लिख दिया करें ताकि पढ़ने मे सुविधा रहे । सादर
अच्छी ग़ज़ल के लिए साधुवाद i
भाई गिरिराज जी, भाई शिज्जु शकूर जी तथा भाई श्याम नारायण जी , उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ,
आशा है , मार्गदर्शन भी करते रहेंगे .
आदरणीय लक्ष्मण भाई , सुन्दर गज़ल कही है , अपको अनेकों बधाइयाँ ॥
आदरणीय लक्ष्मण जी इस ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें
बहुत सुंदर भाव, बधाई |
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