साथी! तोड़ न निर्दयता से चुन चुन मेरे पात...
नन्हीं एक लता मैं निर्बल,
मेरे पास न पुष्प न परिमल,
मेरा सञ्चित कोष यही बस,
कुछ पत्ते कुम्हलाये कोमल,
तोड़ न दे यह शाख अकिञ्चन, निर्मम तीव्र प्रवात...
मैं हर भोर खिलूँ मुस्काती,
पर सन्ध्या आकुलता लाती,
साँस साँस भारी गिन गिन मैं,
रजनी का हर पहर बिताती,
एक नये उज्ज्वल दिन की आशा, मेरी हर रात...
पड़ती तेरी ज्वलित दृष्टि जब,
भीत प्राण भी हो जाते तब,
सहमी सकुचायी मैं कहती-
यह दुर्लभ सौभाग्य मिले कब,
मेरी भी काया हो जिस दिन मलय-सुवासित-स्नात...
-मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
एक नये उज्जवल दिन की आशा , मेरी हर रात... दुर्बल मन की सोच, दोनों तरफ मेरी भी काया हो जिस दिन मलय- सुवासित -स्नात .बहुत सुन्दर शब्दों से सजी रचना
अरुन शर्मा 'अनन्त' जी, Maheshwari Kaneri जी, Arun Srivastava जी, laxman dhami जी, vandana जी, annapurna bajpai जी, गिरिराज भंडारी जी एवं शिज्जु शकूर जी - मेरे प्रयास को स्नेह देने हेतु आप सभी गुणीजनों का हार्दिक आभारी हूँ.
अजय भाई वाह बहुत ही सुन्दर गीत रचा है आपने पढ़कर दिल खुश हो गया शब्द चुनाव बहुत ही सुन्दर है हार्दिक बधाई स्वीकारें.
एक पुरुष द्वारा ऐसे सुन्दर और कोमल स्त्री भाव सुखद लगे पढ़ने में ! सुन्दर गीत !
आदरणीय अजय भाई गीत ने भवबिभोर कर दिया .हार्दिक बधाई .
बहुत सुन्दर गीत आदरणीय
बहुत सुंदर गीत हेतु बधाई आपको आ0 अजय जी ।
आ. अजय भाई , सुन्दर गीत रचना के लिये बधाई ॥
बहुत अच्छा गीत रचा है भाई अजय जी आपने इस भावपूर्ण गीत के लिये बधाई स्वीकार करें
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