इस दुनिया के तौर तरीके
धीरे धीरे समझे हम
गुलदस्तों की ओट में खंजर
धीरे-धीरे समझे हम|
जोश बड़ा था होश नहीं था
हद से आगे गुजरे हम
हद से आगे जो होता है
धीरे-धीरे समझे हम|
जो भी मिल गए
अपने बन गए
रिश्ते खूब निभाये हम
रिश्तेदारों की हकीकत
धीरे-धीरे समझे हम|
बीत गयी हर बात पुरानी
एक कहानी बन गए हम
फंतासी हैं रिश्ते नाते
धीरे-धीरे समझे हम|
शहद समझकर हंसकर पी गए
जहर के कितने प्याले हम
किश्तों में फिर मौत का आना
धीरे-धीरे समझे हम|
दर्पण का दिल चटक गया
जब इसके भीतर झांके हम
हजार मुखोटे एक चेहरे पर
धीरे-धीरे समझे हम|
मेहनत करके हारा है जो
उसे नकारा समझे हम
मेहनतकश की पीर कहां है
धीरे-धीरे समझे हम|
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बहुत सुंदर प्रस्तुति |
प्रबुद्ध सुधीजनो के इस मार्ग दर्शन से अभिभूत हूँ, लम्बे समय तक मुक्त छ्न्द में लिखने के उपरांत अनुभव हुआ कि काव्य में छ्न्द भी अति महत्वपूर्ण है, सहमत हूँ शिल्प दोष अवश्य होंगे... बहुत ही आभारी रहूँगी अगर सुधीजन भूल सुधार भी कर दें... . आभार
बहुत दिनों पर आपकी रचना से गुजर रहा हूँ. आपके भावशब्दों में रुहानी ताकत है लेकिन रचनाकर्म प्रस्तुति के अलावे एक साधना भी है जिसमें कुछ कहने का ढंग यानि शिल्प भी अर्थ रखता है. तब तो और, जब रचनाकार शाब्दिक प्रवाह के व्यामोह में दिखे.
अरुन अनन्तभाई के कहे से मैं भी सहमत हूँ.
शुभेच्छाएँ
दुनियादारी, रिश्ते नातों, अपनों परायों के उलझे जाल को समझने की चेष्टा करती अभिव्यक्ति...
शिल्प के स्तरपर अभी कुछ और वक़्त दिए जाने की ज़रुरत है इस रचना पर.
शुभकामनाएं
भाई अरुन शर्मा 'अनन्त' जी की बात से सर्वथा सहमत हूँ. पहले पद का प्रवाह यदि सम्पूर्ण रचना में होता तो क्या ही उत्तम रचना होती. फिलहाल, भावपूर्ण रचना के सृजन पर बधाई स्वीकारें आदरणीया |
इस दुनिया के तौर तरीके
धीरे धीरे समझे हम
गुलदस्तों की ओट में खंजर
धीरे-धीरे समझे हम| .....wah wah kya kahan hai apka ..........bahut hi sunder
जोश बड़ा था होश नहीं था
हद से आगे गुजरे हम
हद से आगे जो होता है
धीरे-धीरे समझे हम|
दर्पण का दिल चटक गया
जब इसके भीतर झांके हम
हजार मुखोटे एक चेहरे पर
धीरे-धीरे समझे हम|
मेहनत करके हारा है जो
उसे नकारा समझे हम
मेहनतकश की पीर कहां है
धीरे-धीरे समझे हम| ........आदरणीया सारिका जी ....बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना कही अपने...... बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीया सारिका जी रचना ने बहुत ही सुन्दर भाव पिरोये हैं आपने प्रथम दो पंक्तियों में जो प्रवाह है यदि वही सम्पूर्ण रचना में होता तो आनंद आ जाता. खैर इस रचना पर ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें.
Abhaar Nadir Khan Sahab...
शहद समझकर हंसकर पी गए
जहर के कितने प्याले हम
किश्तों में फिर मौत का आना
धीरे-धीरे समझे हम|
दर्पण का दिल चटक गया
जब इसके भीतर झांके हम
हजार मुखोटे एक चेहरे पर
धीरे-धीरे समझे हम|
आदरणीया सारिका जी इस उम्दा रचना के लिए आपको कोटिशः बधाईयाँ..
दिल को छू लेने वाली शानदार अभिव्यक्ति ....
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online