बह्र : २१२ २१२ २१२
जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई
एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई
रीझ उठी नाचते मोर पे
मोरनी नोच डाली गई
खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई
देव मानव के चिर द्वंद्व में
उर्वशी नोच डाली गई
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल ..ये शेर मेरी पसंद का
एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई....वाह ..क्या कहने !
बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आ० धर्मेन्द्र जी
हर शेर मन में एक टीस उत्पन्न करता हुआ...
बहुत बहत बधाई
भाई बाकमाल ग़ज़ल है। इस उम्दा ग़ज़ल के लिये बधाई।
बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
मार्मिक गजल
कब से पढ़ रहा हूँ ! और फिर भी पढ़ने का मन कर रहा है ! तारीफ में कुछ नही लिखूंगा ! फिर से पढता हूँ एक बार !
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई जी आप ग़ज़ल में कठिन रदीफ़ चुनते हैं और जिस खूबसूरती से उसका निर्वाह करते हैं वो काबिले तारीफ है. सुन्दर ग़ज़ल बधाई स्वीकारें.
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , लाजवाब गज़ल कही है , सभी शे र खूबसूरत हैं ॥ बधाइयाँ कुबूल हो ॥
जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई.... भीतर तक भेद गयी ... आपकी लेखनी को नमन ...धन्यवाद ... आधी आबादी के दर्द को आपने स्वर दिया ...सादर आभार
वाह भाई जी बधाई
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