कैसा है यह जीवन मेरा !
रोटी की खातिर मैं भटकूँ
नदियों नदियों , नाले नाले ।
अधर सूखते सूरत जल गयी
पड़े पाँव मे मेरे छाले ।
लक्ष्य कभी क्या मिल पाएगा , मिल पाएगा रैन बसेरा ?
कैसा है यह जीवन मेरा !
मैंने तो सोचा था यारो
भ्रमण करूंगा उपवन-उपवन
जाने कैसे राह बदल गयी
बैठा सोचे आज व्यथित मन !
मेरा मन बनजारा बनकर , नित दिन अपना बदले डेरा ।
कैसा है यह जीवन मेरा !
पर्वत-पर्वत क्यूँ भागूँ मै
किसने मुझको भटकाया है
करवट लेते रात गुजरती
यह कैसा मौसम आया है !
कभी घिरा मै तनहाई से , कभी घटाओं ने आ घेरा ।
कैसा है यह जीवन मेरा ?
.
--- मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
//भूवैज्ञानिक बन नए खनिजों के खोज हेतु नदियों नदियों नाले नाले भटकने लगा.//.... खनिजों का जल स्रोतों और जंगल से गहरा सम्बन्ध है...आपको भूवैज्ञानिक के नाते कर्मक्षेत्र कई नदियों के किनारे ले गया...इस परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्ति के इस अंश का अर्थ स्पष्टता अवश्य पाता है.
इसे अपने पुराने अनुभवों को साझा करते हुए बताने के लिए धन्यवाद.
सादर.
बहन डॉo प्राची जी,
प्रस्तुति पसंद आयी, हार्दिक आभार स्वीकार करें ।
रचना की कुछ पंक्तियों पर हुए संशय के निवारण से पूर्व मुझे डॉ राही मासूम रजा की लिखी चंद पंक्तियाँ याद आ रहीं है :---------- जरूरतों के अंधेरे मे डूब जातीं हैं , न जाने कितनी ज़मीनें जो आसमाँ होतीं ! ----- अपने जीवन मे मैं फिल्म डायरेक्टर बनना चाहता था। वर्ष 1973 मे पूना फिल्म एवं टेलीविज़न इंस्टीट्यूट द्वारा आयोजित लिखित प्रतियोगिता मे राष्ट्रिय स्तर पर प्रथम स्थान प्राप्त करने तथा सर्वश्री मृणाल सेन , गिरीश कर्णाड, राजेन्द्र सिंह बेदी तथा तीन अन्य ( वर्तमान मे नाम याद नहीं ) विषेषज्ञों के द्वारा साक्षात्कार लिए जाने के उपरांत मैं प्रतीक्षा सूची मे प्रथम स्थान पर था ( जाने कैसे राह बदल गयी )। शायद यही वो पल था जिसके बाद मैं भूवैज्ञानिक बन कुमाऊँ के पहाड़ों मे मैं अन्वेषन कार्यों मे व्यस्त हो गया ( मेरा मन बंजारा बनकर नित दिन अपना बदले डेरा )। जीवन मे धन की आवश्यकता से किसे इंकार हो सकता है ?
धन अर्जित करने हेतु मैं राजकीय सेवा मे आ गया तथा भूवैज्ञानिक बन नए खनिजों के खोज हेतु नदियों नदियों नाले नाले भटकने लगा । कभी कभी लेखनी भी चलती रही । ओ बी ओ परिवार से जुडने के बाद पुरानी फाइलों मे पड़ी रचनाओं की तलाश शुरू हुई । प्रस्तुत रचना उन्ही मे से एक है, जो अब तक प्रकाशन की राह देख रही थी ।
यह रचना जब लिखी गई , ( शायद 1975-76 मे ) मैं अल्मोड़ा जनपद के झिरोली नामक स्थान पर एक ऊंचे पहाड़ पर लगे टेंट मे रह रहा था तथा हर रोज ( संयुक्त राष्ट्र विकाश कार्यक्रम योजना के अंतर्गत ) लगभग 20 किलो मीटर पैदल नदियों नालों मे घुमंतू बंजारों की तरह भटकता रहता था । झिरोली मे बाद मे मैगनेसाईट फैक्टरी लग गयी थी ।
आशा है आपके संशय का निवारण हो गया होगा । कवि या गीतकार तो हूँ नहीं किन्तु पहाड़ों पर बहते हुए झरनों, जंगलों , बादलों तथा बर्फ से आच्छादित पहाड़ों को देख न जाने कैसे और कब, गिरते झरनों की तरह पंक्तियाँ कलम से निकलने लगतीं है।
आभार !
प्रस्तुति हेतु धन्यवाद आदरणीय. आपके प्रयास में तथ्यात्मकता की अपेक्षा है.
बहुत सुंदर प्रस्तुति बधाई आपको आदरणीय ब्रांहचारी जी ।
कई बार इंसान अपने पूरे जीवन के बारे में सोचता है तो उसे बंजारे के जीवन सा ही प्रतीत होता है..
पूरी प्रस्तुति पसंद आयी आदरणीय..
आपको बहुत बहुत बधाई
पर्वत-पर्वत क्यूँ भागूँ मै
किसने मुझको भटकाया है................वाह! अपने आप से बहुत सुन्दर सार्थक प्रश्न !
पर मैं पहली पंक्ति में अटक गयी आदरणीय, आप कृपया मार्गदर्शन कीजिये ...
रोटी की खातिर मैं भटकूँ
नदियों नदियों , नाले नाले ।...............रोटी के लिए दर दर भटकने की जगह.. नदी नाले में रोटी तलाशना ... मैं नहीं कोरीलेट कर पायी .... (या फिर आप नदियों के किनारे मानव सभ्यताओं के विकास की ऐतिहासिक बात कर रहे हैं)..मुझे संशय हो रहा है कृपया स्पष्ट करें आदरणीय
सादर.
मैंने तो सोचा था यारो
भ्रमण करूंगा उपवन-उपवन
जाने कैसे राह बदल गयी
बैठा सोचे आज व्यथित मन !
मेरा मन बनजारा बनकर , नित दिन अपना बदले डेरा ।
कैसा है यह जीवन मेरा !
व्यथा को बहुत सुंदर शब्द मिले, बधाई आदरणीय ब्रह्मचारी जी
आदरणीय ब्रह्मचारी भी , खुद के अन्दर उठते सवालों को सुन्दर शब्द मिले हैं , गीत के लिये बधाइयाँ ॥
बहुत सुन्दर .. बधाई आदरणीय
मेरा मन बनजारा बनकर , नित दिन अपना बदले डेरा ।
कैसा है यह जीवन मेरा !....................
बहुत खूब श्रीमान...........................
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