For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कैसा है यह जीवन मेरा !

कैसा है यह जीवन मेरा !

रोटी की खातिर मैं भटकूँ

नदियों नदियों , नाले नाले ।

अधर सूखते सूरत जल गयी

पड़े  पाँव मे  मेरे छाले ।

लक्ष्य कभी क्या मिल पाएगा , मिल पाएगा रैन बसेरा ?

कैसा है यह जीवन मेरा !                                         

 

मैंने तो सोचा था यारो

भ्रमण करूंगा उपवन-उपवन

जाने कैसे राह बदल गयी

बैठा सोचे आज व्यथित मन !

मेरा मन बनजारा बनकर ,  नित दिन अपना बदले डेरा ।

कैसा है यह  जीवन  मेरा !

 

पर्वत-पर्वत क्यूँ  भागूँ  मै

किसने मुझको भटकाया है

करवट लेते रात गुजरती

यह कैसा मौसम आया है !

कभी घिरा मै तनहाई से , कभी घटाओं ने आ  घेरा ।

कैसा है यह जीवन मेरा ?

.

 --- मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 664

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on February 6, 2014 at 10:36pm
//मैंने तो सोचा था यारो
भ्रमण करूंगा उपवन-उपवन
जाने कैसे राह बदल गयी
बैठा सोचे आज व्यथित मन !// ब्रह्मचारी जी,आपकी इस रचना पर पहली प्रतिक्रिया मेरी ही थी. कुछ अन्य प्रतिक्रियाओं के बाद आज मैंने फिर से इसे देखा तो मन में प्रश्न उभर आए. 1975-76 में आपने जो पंक्तियाँ लिखी थी क्या उस मनोदशा से आप आज भी सहमत हैं? जर्मन परिव्राजक और भूवैज्ञानिक हान्स क्लूस के अनुसार '....भूविज्ञान धरती का संगीत है'. मुझे विश्वास है कि भूवैज्ञानिक के तौर पर अपने लम्बे और सफल जीवन में आपने भी इस संगीत की सुर-लहरी को अपने में आत्मसात किया है. आप क्या बनने गए थे, बन सकते थे यह प्रश्न उठाना निरर्थक है...आपने जो देखा, जो किया, जो जीवन जिया उसके प्रकाश के चकाचौंध में बाकी सब कुछ अदृश्य हो जाता है. इसीलिए //भूवैज्ञानिक बन नए खनिजों के खोज हेतु नदियों नदियों नाले नाले भटकने लगा.//.... न कहकर यदि आप कहें '.......विचरण करने लगा' तो अधिक उपयुक्त होगा. सादर.

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 6, 2014 at 9:15pm

 //भूवैज्ञानिक बन नए खनिजों के खोज हेतु नदियों नदियों नाले नाले भटकने लगा.//.... खनिजों का जल स्रोतों और जंगल से गहरा सम्बन्ध है...आपको भूवैज्ञानिक के नाते कर्मक्षेत्र कई नदियों के किनारे ले गया...इस परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्ति के इस अंश का अर्थ स्पष्टता अवश्य पाता है.

इसे अपने पुराने अनुभवों को साझा करते हुए बताने के लिए धन्यवाद.

सादर.

Comment by S. C. Brahmachari on February 6, 2014 at 8:49pm

बहन डॉo प्राची  जी,

प्रस्तुति पसंद आयी, हार्दिक आभार स्वीकार करें ।

रचना की कुछ पंक्तियों पर हुए संशय के निवारण से पूर्व मुझे डॉ राही मासूम रजा की लिखी चंद पंक्तियाँ याद आ रहीं है :---------- जरूरतों के अंधेरे मे डूब जातीं हैं , न जाने कितनी ज़मीनें जो आसमाँ होतीं !   -----  अपने जीवन मे मैं फिल्म डायरेक्टर बनना चाहता था। वर्ष 1973 मे पूना फिल्म एवं टेलीविज़न इंस्टीट्यूट द्वारा आयोजित लिखित प्रतियोगिता मे राष्ट्रिय स्तर पर प्रथम स्थान प्राप्त करने तथा सर्वश्री मृणाल सेन , गिरीश कर्णाड, राजेन्द्र सिंह बेदी तथा तीन अन्य ( वर्तमान मे नाम याद नहीं ) विषेषज्ञों के द्वारा साक्षात्कार लिए जाने के उपरांत मैं प्रतीक्षा सूची मे प्रथम स्थान पर था ( जाने कैसे राह बदल गयी )। शायद यही वो पल था जिसके बाद मैं भूवैज्ञानिक बन कुमाऊँ के पहाड़ों मे मैं अन्वेषन कार्यों मे व्यस्त हो गया ( मेरा मन बंजारा बनकर नित दिन अपना बदले डेरा )। जीवन मे धन की आवश्यकता से किसे इंकार हो सकता है ?  

धन अर्जित करने हेतु मैं राजकीय सेवा मे आ गया तथा भूवैज्ञानिक बन नए खनिजों के खोज हेतु नदियों नदियों नाले नाले भटकने लगा । कभी कभी लेखनी भी चलती रही । ओ बी ओ परिवार से जुडने के बाद पुरानी फाइलों मे पड़ी रचनाओं की तलाश शुरू हुई । प्रस्तुत रचना उन्ही मे से एक है, जो अब तक प्रकाशन की राह देख रही थी ।

 

यह रचना जब लिखी गई , ( शायद 1975-76 मे ) मैं अल्मोड़ा जनपद के झिरोली नामक स्थान पर एक ऊंचे पहाड़ पर लगे टेंट मे रह रहा था तथा हर रोज ( संयुक्त राष्ट्र विकाश कार्यक्रम योजना के अंतर्गत ) लगभग 20 किलो मीटर पैदल नदियों नालों मे घुमंतू बंजारों की तरह भटकता रहता था । झिरोली मे बाद मे मैगनेसाईट फैक्टरी लग गयी थी ।

 

आशा है आपके संशय का निवारण हो गया होगा । कवि या गीतकार तो हूँ नहीं किन्तु पहाड़ों पर बहते हुए झरनों, जंगलों , बादलों तथा बर्फ से आच्छादित पहाड़ों को देख न जाने कैसे  और कब, गिरते झरनों की तरह पंक्तियाँ कलम से निकलने लगतीं है।

 

आभार !            

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 6, 2014 at 4:30pm

प्रस्तुति हेतु धन्यवाद आदरणीय.  आपके प्रयास में तथ्यात्मकता की अपेक्षा है.

Comment by annapurna bajpai on February 6, 2014 at 2:00am

बहुत सुंदर प्रस्तुति बधाई आपको आदरणीय ब्रांहचारी जी । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 5, 2014 at 5:16pm

कई बार इंसान अपने पूरे जीवन के बारे में सोचता है तो उसे बंजारे के जीवन सा ही प्रतीत होता है.. 

पूरी प्रस्तुति पसंद आयी आदरणीय..

आपको बहुत बहुत बधाई 

पर्वत-पर्वत क्यूँ  भागूँ  मै

किसने मुझको भटकाया है................वाह! अपने आप से बहुत सुन्दर सार्थक प्रश्न !

पर मैं पहली पंक्ति में अटक गयी आदरणीय, आप कृपया मार्गदर्शन कीजिये ...

रोटी की खातिर मैं भटकूँ

नदियों नदियों , नाले नाले ।...............रोटी के लिए दर दर भटकने की जगह.. नदी नाले में रोटी तलाशना ... मैं नहीं कोरीलेट कर पायी .... (या फिर आप नदियों के किनारे मानव सभ्यताओं के विकास की ऐतिहासिक बात कर रहे हैं)..मुझे संशय हो रहा है कृपया स्पष्ट करें आदरणीय 

सादर.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 4, 2014 at 11:26pm

मैंने तो सोचा था यारो

भ्रमण करूंगा उपवन-उपवन

जाने कैसे राह बदल गयी

बैठा सोचे आज व्यथित मन !

मेरा मन बनजारा बनकर ,  नित दिन अपना बदले डेरा ।

कैसा है यह  जीवन  मेरा !

व्यथा को बहुत सुंदर शब्द मिले, बधाई आदरणीय ब्रह्मचारी जी

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 4, 2014 at 6:50pm

आदरणीय ब्रह्मचारी भी , खुद के अन्दर उठते सवालों को सुन्दर शब्द मिले हैं , गीत के लिये बधाइयाँ ॥

Comment by Meena Pathak on February 4, 2014 at 6:28pm

बहुत सुन्दर ..  बधाई आदरणीय 

Comment by अनिल कुमार 'अलीन' on February 4, 2014 at 11:42am

मेरा मन बनजारा बनकर ,  नित दिन अपना बदले डेरा ।

                        कैसा है यह  जीवन   मेरा !....................

बहुत खूब श्रीमान...........................

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"ठीक है खुल के जीने का दिल में हौसला अगर हो तो  मौत   को   दहलने में …"
1 minute ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"बहुत अच्छी इस्लाह की है आपने आदरणीय। //लब-कुशाई का लब्बो-लुबाब यह है कि कम से कम ओ बी ओ पर कोई भी…"
10 minutes ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"ग़ज़ल — 212 1222 212 1222....वक्त के फिसलने में देर कितनी लगती हैबर्फ के पिघलने में देर कितनी…"
2 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"शुक्रिया आदरणीय, माजरत चाहूँगा मैं इस चर्चा नहीं बल्कि आपकी पिछली सारी चर्चाओं  के हवाले से कह…"
2 hours ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी आदाब, हौसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिय:। तरही मुशाइरा…"
3 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"  आ. भाई  , Mahendra Kumar ji, यूँ तो  आपकी सराहनीय प्रस्तुति पर आ.अमित जी …"
5 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"1. //आपके मिसरे में "तुम" शब्द की ग़ैर ज़रूरी पुनरावृत्ति है जबकि सुझाये मिसरे में…"
7 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"जनाब महेन्द्र कुमार जी,  //'मोम-से अगर होते' और 'मोम गर जो होते तुम' दोनों…"
8 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब, माज़रत ख़्वाह हूँ, आप सहीह हैं।"
9 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"इस प्रयास की सराहना हेतु दिल से आभारी हूँ आदरणीय लक्ष्मण जी। बहुत शुक्रिया।"
17 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय दिनेश जी। आभारी हूँ।"
17 hours ago
Zaif replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"212 1222 212 1222 रूह को मचलने में देर कितनी लगती है जिस्म से निकलने में देर कितनी लगती है पल में…"
17 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service