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सूर्य को तुम देखना अब ओट में होते हुये ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122    2122     2122     212 

सच को देखा आँख मूंदे दिन चढ़े सोते हुये 

आँसुओं से भीगते , बस झींकते रोते हुये

देख भाई बचपनों से, खो न जाये,सादगी   

मैने देखा अनुभवी को धूर्त ही होते हुये

ठीक है अब खूब रोशन आज दिन लगता है पर

सूर्य को तुम देखना अब ओट में होते हुये

 

हर हक़ीकत तेज़ आन्धी की तरह झपटी उधर

जब भी देखी मुफलिसों को ख़्वाब संजोते हुये

 

फिर वही तेज़ाबी बारिश , फिर वही विष बीज है

फिर कटीली झाड़ियाँ , सब दिख रहे बोते हुये

 

रास्ते खुशियों के , मैने हर समय देखा यही

आँसुओं से या ग़मों से ही गये होते हुये    

बुलबुला है हर खुशी अब तू ग़मों का साथ कर

मैने देखा बुलबुलों को फूटते , खोते हुये 

 

ज़िंदगी का हाल तुमको क्या बताऊँ दोस्तों

पहले गुज़री पाप करते ,बाक़ी अब धोते हुये 

 

है ग़लत तक़्सीम *  दुबले हो गये हैं जाँ ब लब *

और मोटे दिख रहे ,मोटे सभी होते हुये  

मोतियाँ पा लेना भी तक़दीर की बातें लगी

कितने खाली हाथ बैठे , सैकड़ों गोते हुये

तक़्सीम = बंटवारा ,

जाँ ब लब = जान होठों तक आना

****************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

Views: 704

Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2014 at 10:03pm

आदरणीय राम शिरोमणी भाई , गज़ल के चार चार शेर को आपकी पसन्दगी मिली , दिल से खुशी हुई , देर से शुक्रिया से लिये क्षमा चाहता हूँ , गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2014 at 10:01pm

आदरणीय सौरभ भाई , भतीजे की शादी मे व्यस्त था इसलिये देर से शुक्रिया कर रहा हूँ , क्षमा प्रार्थी हूँ ॥ ग़ज़ल पर आपकी उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥

Comment by ram shiromani pathak on February 10, 2014 at 2:38pm

ठीक है अब खूब रोशन आज दिन लगता है पर

सूर्य को तुम देखना अब ओट में होते हुये

हर हक़ीकत तेज़ आन्धी की तरह झपटी उधर

जब भी देखी मुफलिसों को ख़्वाब संजोते हुये

फिर वही तेज़ाबी बारिश , फिर वही विष बीज है

फिर कटीली झाड़ियाँ , सब दिख रहे बोते हुये

रास्ते खुशियों के , मैने हर समय देखा यही

आँसुओं से या ग़मों से ही गये होते हुये   

बुलबुला है हर खुशी अब तू ग़मों का साथ कर

मैने देखा बुलबुलों को फूटते , खोते हुये

 

 

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय गिरिराज जी। हार्दिक बधाई आपको


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 6, 2014 at 5:20pm

मोतियाँ पा लेना भी तक़दीर की बातें लगी

कितने खाली हाथ बैठे , सैकड़ों गोते हुये

इस शेर के बरक्स इस पूरी ग़ज़ल पर बार-बार दाद है आदरणीय गिरिराज भाई.

सच कहूँ, तो बहुत दिनों पर आपने ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है और क्या कहा है !

जय हो..

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 6, 2014 at 2:34pm

आदरणीय रमेश भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 6, 2014 at 2:33pm

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , ग़ज़ल को आपका आशीर्वाद मिला , बड़ी खुशी हुई , आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 6, 2014 at 2:32pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल की तारीफ के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 6, 2014 at 10:59am

बेहतरी लाजवाब भैयाजी बहुत बहुत बधाई

Comment by vijay nikore on February 6, 2014 at 8:46am

इस खूबसूरत गज़ल के लिए हार्दिक बधाई, भाई गिरिराज जी।

 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 6, 2014 at 8:28am

आदरणीय भाई गिरिराज जी , दिलखुश ग़ज़ल है ,किस तरह प्रशंसा करूँ. इन  दो असआरो ने अत्यधिक प्रभावित किया 

रास्ते खुशियों के , मैने हर समय देखा यही

आँसुओं से या ग़मों से ही गये होते हुये 

ज़िंदगी का हाल तुमको क्या बताऊँ दोस्तों

पहले गुज़री पाप करते ,बाक़ी अब धोते हुये

हार्दिक बधाई .

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