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बंदरों को फिर मिला शायद मसलने के लिये
फूल ने मंसूबा कल बान्धा था खिलने के लिये
बह के पानी की तरह अब दूर तक वो जायेगा
दर्द को मैने रखा था कल पिघलने के लिये
वक़्त ने कुछ वक़्त देने की नहीं हामी भरी
मैने थोड़ा वक़्त मांगा था सँभलने के लिये
सूर्य निकला तो समय में अस्त होगा भी ज़रूर
चाँद को फिर हड़बड़ी क्यों है निकलने के लिये
किसने रख दी आँच उनकी ख़्वाहिशों के पास में
चंद लम्हें बच गये उनको उबलने के लिये
हौसला गर है शमा सा जो तुम्हारे पास तो
खूब परवाने मिलेंगे रोज़ जलने के लिये
कब इज़ाजत मुफ़लिसी देती है ख़्वाबों की उन्हें
यूँ मचलते रोज़ हैं अरमाँ मचलने के लिये
थरथराती उँगलियाँ कानों में मेरे कह रहीं
चल, इशारा हो गया है याँ से चलने के लिये
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
बंदरों को फिर मिला शायद मसलने के लिये
फूल ने मंसूबा कल बान्धा था खिलने के लिये .... अच्छा मतला
बह के पानी की तरह अब दूर तक वो जायेगा
दर्द को मैने रखा था कल पिघलने के लिये .... बहुत बेहतरीन शेर
वक़्त ने कुछ वक़्त देने की नहीं हामी भरी
मैने थोड़ा वक़्त मांगा था सँभलने के लिये ......... वाह्ह्ह उम्दा शेर
सूर्य निकला तो समय में अस्त होगा भी ज़रूर
चाँद को फिर हड़बड़ी क्यों है निकलने के लिये.... क्या खूब कहा!
किसने रख दी आँच उनकी ख़्वाहिशों के पास में
चंद लम्हें बच गये उनको उबलने के लिये....वाह सर बहुत सुन्दर
हौसला गर है शमा सा जो तुम्हारे पास तो
खूब परवाने मिलेंगे रोज़ जलने के लिये ... अच्छा
कब इज़ाजत मुफ़लिसी देती है ख़्वाबों की उन्हें
यूँ मचलते रोज़ हैं अरमाँ मचलने के लिये....बहुत बेहतरीन अशआर ...झूम गया पढ़कर
थरथराती उँगलियाँ कानों में मेरे कह रहीं
चल, इशारा हो गया है याँ से चलने के लिये ..... बेहद उम्दा .... चल, इशारा हो गया है याँ से चलने के लिये... बहुत उम्दा
इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए नमन आपको ... ढेर सारी बधाइयाँ
ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें आदरणीय गिरिराजजी.
सादर
आदरणीया प्राची जी , आपका बहुत बहुत शुक्रिया आपने ग़ज़ल को इतना मान दिया ॥ तकाबुले रदीफ दोष की ओर ध्यान दिलाने के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥ संशोधन के लिये अभी डाल रहा हूँ , आपका पुनः शुक्रिया ॥
बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
बह के पानी की तरह अब दूर तक वो जायेगा
दर्द को मैने रखा था कल पिघलने के लिये ................वाह !
वक़्त ने कुछ वक़्त देने की नहीं हामी भरी
मैने थोड़ा वक़्त मांगा था सँभलने के लिये ...............ये भी बहुत खूब
किसने रख दी आँच उनकी ख़्वाहिशों के पास में
चंद लम्हें बच गये उनको उबलने के लिये.................बहुत सुन्दर
ठहर कर महसूस करने के लिए हुए हैं ये कुछ ख़ास शेर
मकते के शेर में तकाबुले रदीफ़ का ऐब बन रहा है
बहुत बहुत दिली बधाई पेश है इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए
सादर.
आदरणीय गुमनाम भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल शुक्रिया ॥
सूर्य निकला तो समय में अस्त होगा भी ज़रूर
चाँद को फिर हड़बड़ी क्यों है निकलने के लिये
हौसला गर है शमा सा जो तुम्हारे पास तो
खूब परवाने मिलेंगे रोज़ जलने के लिये
khoob sir ji wah gazal achchhi lagi
आदरणीय आशुतोष भाई , गज़ल आपको बहुत पसन्द आई , मुझे बहुत प्रसन्ंता हुई !! सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..आज आपकी इस ग़ज़ल की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है ..मैंने इस को कई बार पढ़ा ..अभी तक आपके द्वारा लिखी गयीए तमाम ग़ज़लों में ये मुझे सबसे अलहदा लगी ..किसी बिशेष शेर को उद्धृत कर पाना अत्यंत दुष्कर होगा ..मेरी तरफ से ढेरों बधायी स्वीकार करें ..सादर
आदरणीय जितेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत बहुत शुक्रिया ॥
आदरणीया महिमा श्री जी , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत शुक्रिया ॥
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