क्या तुम्हें उपहार दूँ,
प्रिय प्रेम के प्रतिदान का.
तुम वसंत हो, अनुगामी
जिसका पर्णपात नहीं.
सुमन सुगंध सी संगिनी,
राग द्वेष की बात नहीं.
शब्द अपूर्ण वर्णन को
ईश्वर के वरदान का.
विकट ताप में अम्बुद री,
प्रशांत शीतल छांव सी,
तप्त मरू में दिख जाए,
हरियाली इक गाँव की.
कहो कैसे बखान करूँ
पूर्ण हुए अरमान का.
मैं पतंग तुम डोर प्रिय,
तुम बिन गगन अछूता है.
तुमसे बंधकर जीवन
व्योम उत्कर्ष छूता है.
तुम ही कथाकार हो, इस
जीवन के आख्यान का.
क्या तुम्हें उपहार दूँ,
प्रिय प्रेम के प्रतिदान का.
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ. लडिवाला साहब .. आपका धन्यवाद.
बहुत सी सुंदर गीत ..कोमल भावों से सजी प्रस्तुती के लिए हार्दिक बधाई आपको /
इस गीत की भाव दशा और कहन बहुत प्रभावित करते हैं.. बहुत बहुत बधाई
मैं पतंग तुम डोर प्रिय,
तुम बिन गगन अछूता है..........प्रिय प्रीत को समर्पित बहुत सुन्दर शब्द
लेकिन गीत में अंतर्गेयता के लिए शब्द समुच्चय नियम का निर्वहन या पंक्तियों में कुल मात्रिकता की एकरूपता में कमी प्रवाह को बाधित कर रही है... इन बिन्दुओं पर अवश्य ही ध्यान दें
सादर शुभकामनाएं
आदरणीय नीरज जी एक खूबसूरत गीत रचा है आपने बहुत बहुत बधाई आपको
सुन्दर रचना के लिए बधाई
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय विजय निकोरे साहब..
शुक्रिया रमेश कुमार चौहान जी ..
अति सुन्दर प्रस्तुति ! बधाई
बहुत ही सुंदर आदरणीय नीरजजी, बधाई बधाई
हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब , आपकी टिप्पणियां लिखने का हौसला देती है
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