रह जाएगा धन यहीं,जान अरे नादान!
इसकी चंचल चाल पर,मत करिये अभिमान!!
सत्कर्मों से तात तुम,कर लो ह्रदय पवित्र!
उजला उजला ही दिखे,सारा धुँधला चित्र!!
सागर में मोती सदृश,अंधियारे में दीप!
पाना है यदि राम को,जाओ तनिक समीप!!
मन गंगा निर्मल रखें,सत्कर्मों का कोष!
ऐसे नर के हिय सदा,परम शांति संतोष!!
जाग समय से हे मनुज,सींच समय से खेत!
समय फिसलता है सदा,ज्यों हाथों से रेत!!
मन करता फिर से चलूँ,उसी गाँव की ओर!
कोयल गाती थी जहाँ ,नाचा करते मोर !!
गैरों के घर फेकता,पत्थर क्यूँ इंसान!
बना हुआ है काँच का ,तेरा देख मकान !!
********************************************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
अमूल्य सुझाव हेतु हार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र कुमार जी......... सादर
अमूल्य सुझाव व् अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार आदरणीया प्राची जी......... सादर
मन गंगा निर्मल रखें,सत्कर्मों का कोष!
ऐसे नर के हिय सदा,परम शांति संतोष!!
जाग समय से हे मनुज,सींच समय से खेत!
समय फिसलता है सदा,ज्यों हाथों से रेत!!
प्रिय शिरोमणि जी बहुत अच्छे भावयुक्त दोहे हालाँकि जैसा सौरभ भाई ने समझाया और मेंहनत की जरुरत है
सुन्दर।
भ्रमर ५
प्रतापगढ़ उ.प्रदेश
किसी भी रचना प्रस्तुति में कथ्य में तार्किकता होना भी बहुत ज़रूरी है.. कुछ एक दोहे तार्किकता के व स्पष्ट सोच समझ चिंतन की दरकार रखते हैं.. साथ ही दोहे के एक पद में एकवचन की तरह बात कह कर दूसरे पद में बहुवचने शब्द व्याकरणिक दृष्टी से दोहों को कमज़ोर भी कर रहे हैं....
प्रयास सुन्दर है , कुल भाव भी बहुत अच्छा है उन्नत है... फिर भी भाव को तार्किकता का दृढ़ आधार चाहिए.. सार्थक सजग सतत अध्ययन व रचनाकर्म चलता रहे
शुभकामनाएं
आ. राम भाई,
सुंदर दोहे की हार्दिक बधाई। आ. सौरभ भाई द्वारा विस्तार से की गई टिप्पणी से हम सभी को बहुत कुछ सीखने मिला है।
रह जाएगा धन यहीं, जान अरे नादान!
इसकी चंचल चाल पर, मत करिये अभिमान!!...
दोनों पदों का ऑब्जेक्ट एक है अतः दोनों सर्वनाम में दोष है. तू और तुम को एक ही ऑब्जेक्ट के लिए एक ही प्रस्तुति में प्रयुक्त करना किसी विधा के पद्य में मान्य नहीं है.
सत्कर्मों से तात तुम,कर लो ह्रदय पवित्र!
उजला उजला ही दिखे,सारा धुँधला चित्र!!
इस दोहे के रचयिता आप हैं. इसे आप समझ भी सकते हैं.
क्या आपके ’तातजी’ दुष्कर्मी हैं जिनके हृदय को पवित्र करने का भृगु-सुझाव दिया जा रहा है ?
फिर, सारा धुँधला चित्र यदि उजला-उजला दिखेगा तो सत्कर्मी होने से ही का क्या लाभ ? पता नहीं यह दोहा क्या कहना चाहता है. या, जो कुछ कहना चाहता है वह बाहर नहीं आ रहा है. जो आ रहा है वह वही है जो पहले की पंक्तियों में मैं समझ चुका हूँ.
सागर में मोती सदृश,अंधियारे में दीप!
पाना है यदि राम को,जाओ तनिक समीप!!
किसके समीप जाने से राम मिल जायेंगे ? राम के न ? तो फिर पहले पद में सागर में मोती के होने के या अँधियारे में दीप के होने के कारण् अ क्यों बताये जा रहे हैं. इन प्रतीकों से राम के निकट जाने को कैसे प्रेरणा मिल रही है ? कोई बतायेगा ?
मुझे रचनाकार नहीं, कोई पाठक बताये, जिसने इस प्रस्तुति पर अपनी टिप्पणी की है. क्या अपने मन में पहले से बसे ऐसे प्रतीकों की सार्थकता हावी नहीं जो यहाँ छंद में अतार्किक कारणों के बावज़ूद सटीक सोचने को बाध्य कर रही है ! छंद कहा कुछ तार्किक कह रहा है ?
मन गंगा निर्मल रखें,सत्कर्मों का कोष!
ऐसे नर के हिय सदा,परम शांति संतोष!!
सही कहा.
लेकिन गंगा को रखे कहिये न रखें की बाध्यता क्यों ? संज्ञा में गंगाजी तो है नहीं कि आदर सूचक क्रिया अपनायी जाये ?
जाग समय से हे मनुज,सींच समय से खेत!
समय फिसलता है सदा,ज्यों हाथों से रेत!!
बहुत सही..
मन करता फिर से चलूँ,उसी गाँव की ओर!
कोयल गाती थी जहाँ ,नाचा करते मोर !!
सही..
गैरों के घर फेकता,पत्थर क्यूँ इंसान!
बना हुआ है काँच का ,तेरा देख मकान !!
इस दोहे में भी वही दोष है जो इस प्रस्तुति के पहले दोहे में है.
इंसान गैरों के घर यदि पत्थर फेंकता है तो उसे क्यों रोकें ? उसका खुद का मकान ’काँच’ का कहाँ है कि वह अपने प्रति संयम बरते ? ’काँच’ का मकान तो ’तेरा’ है. यह ’तेरा’ कौन है ? इंसान के लिए सर्ववनाम तो ’तेरा’ हो नहीं सकता. उसके लिए सही सर्वनाम तो ’उसका’ होगा.
विश्वास है, आगे से आपके दोहे वही कहेंगे जो आप वाकई कहना चाहते हैं.
खूब लीखिये. सोच कर लीखिये.
शुभेच्छा
सर्वप्रथम क्षमा प्रार्थी हूँ अपनी ही पोस्ट पर विलम्ब से आने पर////////// आदरणीय सौरभ जी आपसे सहमत हूँ , "ये भाषिक घालमेल या शाब्दिक छूट आदि के प्रति लोभ या उत्साह नहीं है. वस्तुतः यह अध्ययन के प्रति अकर्मण्यता है"///// ऐसा नहीं है आदरणीय भूलवश ध्यान नहीं गया मेरा// सादर
सत्कर्मों से तात तुम,कर लो ह्रदय पवित्र!
उजला उजला ही दिखे,सारा धुँधला चित्र!!
उत्साह वर्धन हेतु बहुत बहुत आभार भाई जीतेन्द्र जी //
सर्वप्रथम क्षमा प्रार्थी हूँ अपनी ही पोस्ट पर विलम्ब से आने पर//////////
आदरणीय सौरभ जी आपसे सहमत हूँ ,आदरणीय गिरिराज जी का सुझाव शिल्प कि दृष्टि से सही नहीं होगा!
रह जाएगा धन यहीं,जान अरे नादान!
इसकी चंचल चाल पर,मत करिये अभिमान!!.........बहुत सटीक सन्देश
मन गंगा निर्मल रखें,सत्कर्मों का कोष!
ऐसे नर के हिय सदा,परम शांति संतोष!!.............सच्ची बात
गैरों के घर फेकता,पत्थर क्यूँ इंसान!
बना हुआ है काँच का ,तेरा देख मकान !!............इंसानी फितरत
बहुत सुंदर दोहावली आदरणीय राम भाई , हार्दिक बधाई आपको
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online