बह्र : मात्रिक बह्र
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तुम तड़पी तो हम भी तरसे, ये भी तुमको मालुम हो
तुमसे ज्यादा हम टूटे थे, ये भी तुमको मालुम हो
तुमको इसका दुख है तुमने, मेरे खातिर दर्द सहा
हम भी तेरी याद में रोए, ये भी तुमको मालुम हो
मेरा ऊँचा बंगला जाने, दुनिया को क्यों खलता है
एक समय था दर-दर भटके, ये भी तुमको मालुम हो
बस देख के उनकी सूरत को, उनको अच्छा मत जानो
इक चेहरे पे कितने चेहरे, ये भी तुमको मालुम हो
राह में मेरी फूल बिछे तो, कहते हो तुम किस्मत है
पांव में कितने चुभे थे कांटे, ये भी तुमको मालुम हो
रिश्ता बनना खेल नहीं है, बनते बनते बनती है
लेकिन कैसे रिश्ते निभते, ये भी तुमको मालुम हो
-शकील जमशेदपुरी
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*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
ग़ज़ल के लिए बधाई, भाईजी.
मालूम को मालुम कह सकते हैं ? यदि हां तो ढेर सारी बधाइयाँ.
एक बात :
रिश्ता पुल्लिंग है.
राह में मेरी फूल बिछे तो, कहते हो तुम किस्मत है
पांव में कितने चुभे थे कांटे, ये भी तुमको मालुम हो...........यह शेर बहुत खास हुआ, ढेरों बधाइयाँ आदरणीय शकील साहब
राह में मेरी फूल बिछे तो, कहते हो तुम किस्मत है
पांव में कितने चुभे थे कांटे, ये भी तुमको मालुम हो.. बहुत सुन्दर
राह में मेरी फूल बिछे तो, कहते हो तुम किस्मत है
पांव में कितने चुभे थे कांटे, ये भी तुमको मालुम हो....इस शे'र के लिए दिली दाद ! एक बढ़िया ग़ज़ल हुई है जनाब ! मुबारकबाद !
आदरणीय शकील भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥ आदरणीय ' रिश्ता ' पुल्लिंग शब्द है , आखरी शे र देख लीजियेगा ॥
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