बह्र: 2122/2122/212
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दीप मेरा दुनिया को है खल रहा
जब से ये बादे मुखालिफ जल रहा
फिर वही बेचैनियां और मन उदास
ख्वाब किसका दिल में फिर से पल रहा
चांद को अब सौंप कर सब रोशनी
प्यार का सूरज मेरा है ढल रहा
घुट रहा था दिल ही दिल, बरसा नहीं
मैं अभागा किस कदर बादल रहा
इस सफर में होगी बेशक रोशनी
थाम कर पलकें तेरी मैं चल रहा
आग उनके दिल की अब तो बुझ चुकी
दिल हमारा अब तलक है जल रहा
क्यों न हो मस्ती के मस्ताने हजार
मैं तुम्हारी आंख का काजल रहा
मुश्किलों में इसलिए हंसता 'शकील'
सिर पे मां का हर घड़ी आंचल रहा
- शकील जमशेदपुरी
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*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब भई
एक और अच्छी ग़ज़ल के लिए ढेरो मुबारकबाद
बहुत बहुत आभार आदरणीय Shijju Shakoor जी।
बहुत बढ़िया शकील भाई दाद कुबूल करें
सुन्दर गज़ल ... बधाई आप को | सादर
मैं अभागा किस कदर बादल रहा... बहुत खूब.. उम्दा भाव..
बहुत ख़ूब ... शकील भाई .. बधाई
बढ़िया ग़ज़ल ..बधाई
आदरणीय शकील भाई जी बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर बढ़िया बन पड़े हैं हार्दिक बधाई स्वीकारें.
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई आ0 शकील भाई जी.....
//वैसे तो 'और' को 21 लिया जाता है। पर जरूरत के हिसाब से इसे गिराकर 'औ' भी पढ़ा जाता है और इसकी मात्रा 2 ली जाती है //
और को दो मात्रिक करने के लिए औ’ ही लिखने में क्या हर्ज़ है ? जबक यह पूर्णतया मान्य है. त्रिमात्रिक और को दोमात्रिक बरतना उलझनें पैदा करता है. और मंच पर आयोजनों में ऐसे मिसरे बेबह्र की श्रेणी में भी माने गये हैं.
शुभेच्छाएँ
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