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2122- 2122- 212

जब से तेरी जुस्तजू होने लगी             (जुस्तजू=तलाश)

अजनबी सी मुझसे तू होने लगी

 

वक्त का होने लगा है वो असर

अब महक फूलों की बू होने लगी

 

भागता था जिस बला से दूर मैं

हर तरफ वो रू-ब-रू होने लगी

 

मुस्तकिल ये ज़िन्दगी होती नहीं           (मुस्तकिल= स्थाई)

क्यूँ इसी की आरज़ू होने लगी

 

उम्र के फटने लगे हैं अब लिबास

सो दवाओं से रफ़ू होने लगी

 

नफरतें ही नफरतें हैं देखिये

बदगुमानी चार सू होने लगी             (बदगुमानी=बुरी धारणा रखना)

 

गर्मियों का देश में मौसम हुआ

क्यूँकि बातों से ही लू होने लगी

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 18, 2014 at 9:53pm

भाई रामशिरोमणिजी आपका हार्दिक आभार

Comment by Gajendra shrotriya on March 17, 2014 at 10:45pm

अच्छे अशआर हुए हैं आदरणीय  शिज्जु शकूर साहब । हार्दिक बधाई ! इस शेर के लिए खास तौर से दाद पेश है ।

मुस्तकिल ये ज़िन्दगी होती नहीं
क्यूँ इसी की आरज़ू होने लगी           वाह !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 17, 2014 at 7:56pm

आ. शिज्जू भाई , खूब सूरत गज़ल के लिये बधाइयाँ ॥

उम्र के फटने लगे हैं अब लिबास

सो दवाओं से रफ़ू होने लगी -------- अब ये बात मुझे खूब  समझ आ रही है , बधाइयाँ ।

Comment by नादिर ख़ान on March 17, 2014 at 7:55pm

गर्मियों का देश में मौसम हुआ

क्यूँकि बातों से ही लू होने लगी

आदरणीय शिज्जु जी  क्या उम्दा बात कही है भाई वाह .......

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 17, 2014 at 5:07pm

आदरणीय शिज्जू भाई बेहतरीन गजल के लिए हर्दिक बधाई .

भागता था जिस बला से दूर मैं

हर तरफ वो रू-ब-रू होने लगी

के लिए पुनः बधाई

Comment by ram shiromani pathak on March 17, 2014 at 5:00pm

वाआआअह भाई वाह ज़ोरदार ग़ज़ल.............. बहुत दिनों बाद ऐसी ग़ज़ल पढने को मिली। ………ज़ै हो

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