गाँव की फिजाओं में
अब नहीं गूंजते
बैलों के घूँघरू ,
रहट की आवाज.
नहीं दिखते मक्के के खेत
और ऊँचे मचान .
उल्लास हीन गलियां
सूना दृश्य
मानो उजड़ा मसान.
नहीं गूंजती गांवों में
ढोलक की थाप पर
चैता की तान
गाँव में नहीं रहते अब
पहले से बांके जवान.
गाँव के युवा गए सूरत, दिल्ली और
गुडगांव
पीछे हैं पड़े
बच्चे , स्त्रियाँ, बेवा व बूढ़े
गाँव के स्कूलों में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी.
मास्टर साहब का ध्यान,
अब पढ़ाने में नहीं रहता.
देखतें हैं, गिर ना जाये
खाने में छिपकली.
गाँव वाले कहते हैं,
स्साला मास्टर चोर है.
खाता है बच्चों का अनाज
साहब से साला बने मास्टर जी
सोचते हैं,
किस किस को दूँ अब खर्चे का हिसाब.
चढ़ावा ऊपर तक चढ़ता है तब जाकर कहीं
स्कूल का मिलता है अनाज ..
इन स्कूलों में पढ़कर,
नहीं बनेगा कोई डॉक्टर और इंजीनियर
बच्चे बड़े होकर बनेगें मजदूर
जायेंगे कमाने
सूरत, दिल्ली , गुडगाँव
या तलाशेंगे कोई और नया ठाँव.
...... नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आप अपनी प्रतिक्रिया में जिन क्षेत्रों की जानकारी बयां कर रहे है केवल वहीं नही, यह हालात देश में सभी क्षेत्रों में है.।
सुंदर सार्थक रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय नीरज जी
एक शिक्षक की विवशता को आपने बड़ी खूबसूरती से शब्दबद्ध किया है बहुत बहुत बधाई आपको
आज के समाज का एक ज्वलंत चित्र.नीरज कुमार जी हार्दिक बधाई.
आपका हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब .
आदरणीय नीरज भाई , बहुत सुन्दर रचना लगी , कमो बेश हर गाँव के हर स्कूलों का यही हाल है , !! एक कड़वी सच्चाई बयान की है आपने , बधाइयाँ आपको ॥
जो लोग झारखण्ड, बिहार या UP के पूर्वांचल के गांवो से सरोकार रखते हैं, मुझे उम्मीद है वे मेरी इस कविता के भाव से अवश्य सहमत होंगे ..
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