1222 1222 1222 1222
कहीं कुछ दर्द ठहरा सा , कहीं है आग जलती सी
कभी सांसे हुई भारी , कभी हसरत मचलती सी
कभी टूटे हुये ख़्वाबों को फिर से जोड़ता सा मै
कभी भूली हुई बातें मेरी यादों में चलती सी
कभी होता यक़ीं सा कुछ , कहीं कुछ बेयक़ीनी है
तुझे पाने की उम्मीदें कभी है हाथ मलती सी
कभी महफिल में तेरी रह के मै तनहा सा रहता हूँ
कभी तनहाइयों में संग पूरी भीड़ चलती सी
कभी बेबात ही ये ज़िंदगी वीरान लगती है
कभी बेजान साया देख के थोड़ी बहलती सी
कभी ये लड़खड़ाती है बहुत हमवार राहों मे
कभी ये ज़िन्दगी काटों में भी घिर के सँभलती सी
कभी ये शांत बहती है कोई गहरी नदी हो ज्यूँ
पहाड़ी सी नदी जैसी कभी बेहद उछलती सी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गुमनाम भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका दिली आभार !!
आदरणीय कल्पना मिश्रा जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका बहुत शुक्रिया !!
आदरणीय कल्पना जी , सराहना के लिये आपका आभार !!
आदरणीय बृजेश भाई , सराहना के लिये आपका आभार !!
आदरणीय भाई गिरिराज जी एक बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई ,
लेकिन कुछ संसय अंतिम पंक्ति में लग रहा है , शायद मैं गलत होऊं , फिर भी आप देख लें
पहाड़ी सी नदी जैसी के स्थान पर ' पहाड़ी नद सरीखी ज्यों ' हो तो कैसा रहेगा ,
वाह क्या खूबसूरत ग़ज़ल हुई है बेहद सुन्दर रवानी
सादर
कहीं कुछ दर्द ठहरा सा , कहीं है आग जलती सी
कभी सांसे हुई भारी , कभी हसरत मचलती सी
कभी महफिल में तेरी रह के मै तनहा सा रहता हूँ
कभी तनहाइयों में संग पूरी भीड़ चलती सी
khoob sir ji badhai gazal achchhi lagi
आदरणीय गिरिराज भंडारी सर सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई। सादर
बहुत सुंदर गजल के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज जी
आह! बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने! आपको बहुत-बहुत बधाई!
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