2122 2122 212
वक़्त की रफ़्तार तो पैहम रही
जिंदगी की लौ मगर मद्धम रही
बर्फ बनकर अब्र जो है गिर रहा
पीर की बहती नदी भी जम रही
ग़म भरे अशआर जिसमे थे लिखे
धूप में भी वो ग़ज़ल कुछ नम रही
टूट के बिखरे सभी वो आईने
रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही
वक़्त रहते कुछ नहीं हासिल किया
सोचते हैं जिंदगी कुछ कम रही
कैसे कह दें वो जहाँ में खुश रहे
आँखे उनकी तो सदा पुरनम रही
क्यों दरारें फिर पड़ी उसके निहाँ
जब झड़ी बरसात की झम-झम रही
धूप में गुजरी कभी या छाँव में
जिंदगी खद्दर कभी रेशम रही
मुफ़लिसी का दर्द वो समझा कहाँ
जब तलक दौलत चमक चम-चम रही
________________________
मौलिक एवं अप्रकाशित
पैहम =निरंतर
अब्र =बादल
मुफ़लिसी =गरीबी ,निर्धनता ,या अभाव का भाव
निहाँ=अन्दर
Comment
आदरणीया आप से एक निवेदन है कि आप मुफलिसी का अर्थ स्पष्ट करने की कृपा करें
एक जगह कहीं और सुना था तो इसके मतलब की बात ज़ेहन में रह गयी थी
बचाया है हमारी मुफलिसी ने हम फकीरों को ।
बहुत नज़दीक से देखा है हमने कुछ अमीरों को ।
नीरज मिश्रा जी, आपकी प्रतिक्रिया अभिभूत करती हुई मेरी प्रस्तुति के प्रति आश्वस्ति का कारण हुई मेरे अशआर अपनी बात कहने में कामयाब रहे मेरा लिखना सार्थक हुआ तहे दिल से आभार प्रेषित करती हूँ.
वाह अदभुत सोच में रह जाता हूँ जब ऐसी गहरी दार्शनिकता से रूबरू होता हूँ
अहोभाव उठता है ह्रदय तल से जीवन में प्रकृति का ऐसा समावेश कर देखने
के नज़रिये के प्रति। …। द्वन्द में रह जाता हूँ कविता को समझूँ या कवि को ,,
हज़ारों हज़ारों शुभकामनाएं सम्पूर्ण अंतर मन से प्रेषित हैं ।
मुकेश वर्मा जी आपको ग़ज़ल पसंद दिली शुक्रिया आपका कहना भी सही है जिस ग़ज़ल में जरूरत समझती हूँ तख़ल्लुस का प्रयोग अवश्य करती हूँ ,मेरी आगामी ग़ज़ल में जरूर देखेंगे बहुत- बहुत शुक्रिया
आदरणीया
अच्छी ग़ज़ल हुई है..और ये शेर बहुत खूबसूरत है
टूट के बिखरे सभी वो आईने
रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही
तखल्लुस ग़ज़ल का एक आवश्यक अंग है.. इसे भूले नहीं
तहे दिल से शुक्रिया अनीता मौर्या जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ.
क्या बात है !! बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल.
जितेन्द्र गीत जी, शेर दर शेर आपकी सराहना पाकर ग़ज़ल धन्य हुई ,मेरा लिखना सार्थक हुआ ,तहे दिल से आभारी हूँ |
टूट के बिखरे सभी वो आईने
रूप की चाहत जिन्हें हर दम रही..................वाह! बहुत बहुत बहुत.......... खूब
कैसे कह दें वो जहाँ में खुश रहे
आँखे उनकी तो सदा पुरनम रही..............बेहद सुंदर
क्यों दरारें फिर पड़ी उसके निहाँ
जब झड़ी बरसात की झम-झम रही................यहाँ किसे दोष दें..?
धूप में गुजरी कभी या छाँव में
जिंदगी खद्दर कभी रेशम रही................मन को छू गया
मुफ़लिसी का दर्द वो समझा कहाँ
जब तलक दौलत चमक चम-चम रही............यथार्थ
बहुत शानदार गजल कही आपने आदरणीया राजेश जी, हर एक शेर जिंदाबाद .....दिली दाद कुबूल कीजियेगा
शिज्जू भाई सर्वप्रथम दाद के लिए तहे दिल से आभारी हूँ आपको ये शेर प्रभावित कर सका मेरा लिखना सार्थक हुआ.
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