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सूरज घिरा सवालों में (नवगीत) // --सौरभ

सिर चढ़ आया
फिर से दिन का
भीतर धमक मलालों में..
ऐसे हैं 
संदर्भ परस्पर..
थोथी चीख..  उबालों में !

जहाँ साँझ के
गहराते ही
भरें दिशाएँ हुआँ-हुआँ
फटी बिवाई
ले पाँवों में
नमी हुई है धुआँ-धुआँ

पथ के पिघले डामर को ले 
सूरज घिरा
सवालों में !

सेमल के घर आग लगी है
भीतर-बाहर
रुई-रुई
आँखों पारा छलक रहा है
बहते हैं
अवसाद कई

निर्जल राहें अवसादों की
रखें तरावट छालों में..

एक मुहल्ला अब भी
बसता-ढहता है
हर शाम-सुबह   
दृष्टि गड़ाये गिद्ध लगे हैं
लाशों पर
कर रहे सुलह

इस मरघट में मैना कैसे
सोचे तान खयालों में ?

************
-सौरभ
************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 10, 2023 at 2:05pm

आदरणीया प्राचीजी,
नवगीतों के संदर्भों और उनकी प्रस्तुतियों को लेकर बन गयी या मानली गयी घोषित-अघोषित परिपाटियों में से एक यह भी है कि उनका अंत सुखांत हो.

मैं इस तरह की किसी परिपाटी को एक सिरे से नकारता नहीं, लेकिन इसे तथ्य-विन्दु की तरह मानता भी नहीं. क्योंकि ऐसा कुछ हुआ तो आधुनिक काव्य के नाम पर मठाधीशी कर रहे उन स्कूलों का स्वर मुखर होगा जो ये कहते नहीं थकते कि छन्द, गीत-नवगीत आदि मनुष्य की जमीनी और सही भावनाओं को स्वर नहीं देते. जोकि एकदम से गलत है. जबर्दस्ती की सुखान्तता सार्थक कविता का पर्याय नहीं हो सकती. भूखा पेट कभी डकारने को भाव नहीं दे सकता. दुख के अतिरेक में निर्जल हो चुकी आँखें कभी हरियाली की कोर्निश नहीं बजा सकतीं. जबरदस्ती का सुख-प्रदर्शन गहन मनोवैज्ञानिक रोग का परिचायक होता है. यह मनुष्य को कालान्तर में मानसिक रोगी अवश्य बना डालता है.


गीत-नवगीत हो या छान्दसिक गीत मनुष्य के ’स्व’ को ही अभिव्यक्त करें. यही कुछ मेरे प्रस्तुत गीत से परावर्तित है. यदि परावर्तित है तो फिर मैं किसी स्कूल की घोषित-अघोषित मान्यता की परवाह नहीं करता.

कथ्य, तथ्य, प्रयुक्त भाषा का व्याकरण तथा शिल्प, ये सब निर्दोष हैं तो फिर कविता चाहे कोई हो, किसी विधा की हो, मनुष्य की भावनाओं का आईना है.

आपके अनुमोदन को मैं हृदय की अतल गहराइयों से स्वीकारता हूँ.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 2, 2014 at 3:15pm

इस निवेदित नवगीत की अंतर्धारा को मैंने भी विक्टिम-विक्टिमाइज़र के सन्दर्भ में ही समझा था.. 

साहचर्य की अवधारणा को ही खोखला सा कर देते हैं ये सन्दर्भ 

उसी वेदना को जिस तरह से आप महसूस गए हैं.... आपकी उस संवेदनशीलता पर नत हूँ

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2014 at 3:11pm

सरल शल्य के लिए धन्यवाद .. :-))))

हा हा हा... .

Comment by ASHISH ANCHINHAR on May 2, 2014 at 3:00pm

इस मरघट में मैना कैसे
सोचे तान खयालों में ?


मरघट पर मैना दो ही स्थिति मे आ सकती है। पहली तो जब वह अपने आप को गिद्ध मान लें हेकड़ी से, या दूसरी जब पेट भरने केलिए उसके पास खाद्य का कोई विकल्प ना बचें। सुंदर प्रतीकात्मक नवगीत। बधाइ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2014 at 2:05pm

सामाजिक साहचर्य के धागे परस्पर विश्वास और निर्द्वंद्व समर्पण के दो आलम्बों पर इतना अधिक निर्भर करते हैं कि तनिक खिंचाव का अपरिहार्य होना उसके तंतुओं में अंतर्तनाव का कारण बन जाता है. इसीका व्यापक रूप कारक तथा कारण के मध्य कर्मफल की सर्वसमाही अवधारणा को ही तहस-नहस कर डालता है.

यही कारण है कि मानवीय इकाइयाँ शासक और शोषित के दो विन्दुओं के मध्य सदा से झूलती रही हैं. शासक और शोषित कोई जातिगत अथवा व्यक्तिवाची अवधारणा न हो कर एक विशेष सोच का प्रतिफलन हैं जिसका मनोविज्ञान प्रेयकर्म के प्रति ललक की त्याज्य उपज है.
शासक-शोषित की यह अवधारणा समाज में ही नहीं परिवार में भी प्रत्येक इकाई के स्व में उच्चता-हीनता के भाव प्रतिरोपित करती लगातार अपनी अमरबेल उपस्थिति बनाती जाती है.

पीड़ित या शोषितों की यही असहज दशा प्रस्तुत गीत का मूल है.

आपको इस प्रस्तुति की पंक्तियाँ अर्थजन्य लगीं तथा अपने प्रवाह में आपको बहा ले गयीं तो समझिये मेरे रचनाकर्म को सकारात्मक प्रतिसाद मिल गया है.
रचना को मान देने के लिए सादर आभार आदारणीया प्राचीजी.  
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 2, 2014 at 9:51am

अन्तः वेदना जैसे शब्द पा बह निकलने को आतुर सी हुई पन्नों में उतर गयी 

इस संवेदना पर निःशब्द हूँ 

सब कुछ उजड़ जाने की पीड़ा को सेमल के बिम्ब नें जिस संवेदना से प्राणवान कर दिया है उस प्रयोग पर अचंभित हूँ 

पंक्ति पंक्ति शब्द शब्द अपनी मार्मिकता से अंतर तक प्रविष्ट हो उसे अपने साथ रुला देने में समर्थ है...इससे ज्यादा क्या कहूँ इस अभिव्यक्ति पर 

सूरज का सवालों में घिर जाना भी झकझोर गया 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 1, 2014 at 1:07pm

साझा हुई आपकी संवेदना किसी प्रस्तुति की पूँजी होती है, आदरणीय सत्यनारायणजी.

रचना को मान देने के लिए सादर आभार

Comment by Satyanarayan Singh on May 1, 2014 at 12:24pm

परम आ. सौरभ जी सादर,  एक गहन अनुभूति के साथ अंतस की पीड़ा के भाव समेटे हुए इस नवगीत के प्रस्तुति  हेतु सादर  हार्दिक बधाई स्वीकार करें  आदरणीय

एक मुहल्ला अब भी
बसता-ढहता है
हर शाम-सुबह   
दृष्टि गड़ाये गिद्ध लगे हैं
लाशों पर
कर रहे सुलह

इस मरघट में मैना कैसे
सोचे तान खयालों में ?


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 30, 2014 at 11:38am

आदरणीया कुन्तीजी, प्रकृति तो प्रत्येक चर-अचर संज्ञा का अभिन्न पहलू है. वस्तुतः समस्त चराचर का समुच्चय ही प्रकृति है. अतः यदि इसके अवयव मानवीय संप्रेषणों का बिम्ब बने रहे हैं तो यह समझ में आने वाली बात भी है.
रचना पर आने और समय देने के लिए सादर धन्यवाद.

Comment by coontee mukerji on April 30, 2014 at 12:56am


सेमल के घर आग लगी है
भीतर-बाहर
रुई-रुई

आँखों पारा छलक रहा है
बहते हैं
अवसाद कई  .......अपने मन की सम्वेदनाओं को प्रकृति के माध्यम से.......

यह एक अनूठी रचना है.शायद सवालों के घेरे में रहना सूरज की नियति है. ....और हर कोई सूरज नहीं बन सकता...आपको अनेक साधुवाद. आदरणीय सौरभ जी.

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