जमघट था हर ओर वहां
हर ओर अजब सा शोर था
छल्ले धुऐं के थे कहीं
और कहीं वाद विवाद का जोर था
एक अजनबी से बने
एक मूक दर्शक की तरह
हम कुर्सी की तलाश में
भीड़ से हट कर
एक कोनें में खडे
बार बार अपना
चश्मा साफ़ कर
इधर उधर
बार बार झाँक कर
पलकों के भीतर
आँखों की पुतलियों को
डिस्को करवा रहे थे
तभी एक कुर्सी खाली हुई
ओर हमने तुरत फुरत में
एक लाटरी की तरह
उसे झपट लिया
और एक गहरी सांस के साथ बैठ गये
हमारे सामने की टेबल पर तो
इलेक्शन की गणित पर
बहस हो रही थी
हर मंत्री के
कार्यौं का आंकलन हो रहा था
साथ वाली टेबल पर
समाज में व्याप्त
भ्रष्टाचार ,आतंक ओर रेप
जैसे विषयों पर
गहन विचार विमर्श
चल रहा था
साहब क्या लाऊँ
इतने में मेरे कानों
में एक कर्कश सी
आवाज आई
हमनें चौंक कर अपनी
नजर को तकलीफ दी
ओर फटे से
सफेद कोट ओर पेंट पहने
बैरे से कहा
एक प्याला काफी मेरे भाई
वो भी बिजी था
फिर भी
बिना विलम्ब किये
वो मेरी टेबल पर
काफी पटक गया
काफी से धुंआ निकलकर
सिगरटों के धुऐं से मिलकर
एकाकार हो रहा था
हर टेबल पर होने वाले फैंसले भी
धुऐं में मिलकर लुप्त हो रहे थे
हमनें भी अपनी काफी का आख़िरी घूँट लिया
पर गजब
हमारी जुबान पर काफी न आई
आती भी कैसे
काफी हाउस की
अर्थहीन सोच से ज्यादा तो
वो भी नहीं थी
प्याला खाली हुआ
तो हमने अपनी
सिक्स बाई सिक्स के आंकडे से खेलती
नजरों से इधर उधर देखकर
अपनी बालकमानी को सीधा किया
हम चलने को खड़े ही हुए थे कि
एक बैरा हमसे टकरा गया
और गर्मागर्म काफी का एक दाग
हमारी नई कमीज पर लगा गया
उसने सॉरी की
हम खिसयानी हंसी के साथ
काफी हॉउस की
अर्थहीन सोच का
एक दाग लेकर
आम आदमी की जिन्दगी में लौट आये
एक आम आदमी के सुख दुःख को
खुले आसमान में देखने के लिए
क्योंकि उसका सुख दुःख
तो दो वक्त की भूख है
जो काफी के धुऐं
की तरह उड़ नहीं जाती
हर पल
दो रोटी के लिए
उसकी कमर
बिलबिलाती है
जिम्मेदारियों के बोझ से
असमय ही झुक जाती है,
बावजूद इसके
उसके चहरे पर जब हंसी आती है
तो असली ही आती है
काफी हाऊस के
कहकहों की तरह
नकली नहीं होती
सिगरट के धुऐं की तरह
खत्म नही होती
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी रचना पर आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा और स्नेहाशीष का हार्दिक आभार।
आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा और सुझाव का हार्दिक आभार।
हम खिसयानी हंसी के साथ
काफी हॉउस की
अर्थहीन सोच का
एक दाग लेकर
आम आदमी की जिन्दगी में लौट आये..... बहुत सुन्दर
आ. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें
स्टॉर्म इन द कॉफ़ी कप .. क्या ऐसे ही माहौल को नहीं कहते हैं ?
पैनी दृष्टि से परख और कविता के लिए बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ, आदरणीय सुशीलजी.
सादर
कॉफ़ी हाउस की यथा मंज़रकशी की है..वैसे इस प्रस्तुति में काव्य तत्वों की कुछ कमी महसूस हुई.
प्रस्तुति पर शुभकामनाएं
aa.coontee mukerjee रचना पर आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
बहुत सुंदर रचना है. आपको हार्दिक बधाई
आदरणीया जितेन्द्र 'गीत' जी रचना पर आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार
आदरणीया मुकेश श्रीवास्तव जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार
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