१.
चिलचिलाती धूप सिखाती है
प्रेम करना..
तबतक वन
महुआ-पलाशों में बस
उलझा रहता है.
२.
तुम्हारी उंगलियों ने दबा कर मेरी हथेलियों को
जो कुछ कहा था उस दफ़े..
मेरा आकाश
बस वही बरतता है,
आजतक.
३.
अधरों का ज्वालामुखी जब-जब सक्रिय होता है
सोखने लग जाता है खौलती झील..
लावा उगलने के लिए !
४.
अनुभवहीनता
उत्कट निवेदन की सान्द्रता को अक्सर
विरल कर देती है.
५.
उन स्पर्शों के बोल कितने सुरीले थे !
काश.. उनकी वर्णमाला होती..
मेरा महाकाव्य पढ़तीं तुम !
**********
-सौरभ
**********
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
भूल-सुधार :
इस प्रस्तुति का शीर्षक वस्तुतः यह नहीं है जो दिख रहा है प्रेम : पाँच कविताएँ. प्रस्तुति का मूल शीर्षक वस्तुतः देह-भाव : पाँच भाव-शब्द है. लेकिन प्रस्तुतीकरण के क्रम में जाने क्या सोच कर मैंने इसे बदल दिया. लेकिन, सही कहूँ तो, मेरा मन तबसे संतुष्ट और संयत नहीं था. क्योंकि बदला हुआ शीर्षक इस प्रस्तुति को तार्किक रूप से संतु्ष्ट करता नहीं लग रहा था.
अतः, सविनय निवेदन के साथ इस प्रस्तुति का शीर्षक देह-भाव : पाँच भाव-शब्द किया जा रहा है.
पाठकों को हुई किसी असुविधा के लिए हार्दिक खेद है.
सादर
वस्तुतः, जैसा मैंने जाना है, वैचारिक कविताओं या भाव-शब्दों या भाव-चित्रों में भाव सान्द्रता अधिक होती है और शब्दों का लिहाज उन्हें बाँधे रखता है. यही इनकी विशेषता भी होती है. आधा-एक अधिक शब्द उनके विरलीकरण का कारण हो जाता है और प्रस्तुति वाचाल हो जाती है या सतही मान ली जाती है. लेकिन, इसके बावज़ूद उनमें असंप्रेषणीयता की कोई गुंजाइश नहीं होती. हाँ, पाठक की व्यक्तिगत अनुभूति, उनका अध्ययन और स्वार्जित अनुभव इन प्रस्तुतिओं की संप्रेषणीयता को सुलभ बनाते हैं. अर्थात यह पाठक-पाठक पर निर्भर करता है कि वह इन रचनाओं से क्या प्राप्त करता है. इन पाँच में से जो भी रचना आपको सहज और रुचिकर लगी, मेरा कहा मानिये, कतिपय पाठकों को वही अबूझ लग सकती है. हो सकता है वे मेरी खिल्ली भी उड़ायें कि मैंने क्या बकवास प्रस्तुत कर दिया है. यानि इन रचनाओं का लिहाज एकदम से अलग होता है. रचनाकार और पाठक एक धरातल पर हों. या, कई मायनों में पाठक अधिक सचेत हो. इन्हीं मायनों में शब्द-चित्र भी होते हैं. लेकिन वे तनिक भिन्न होते हैं.
यह अवश्य है कि मैं वही कह रहा हूँ जो मैं जानता हूँ. कोई इससे अधिक जानता होगा तो मुझे बता दे. मैं स्वीकार कर अपनी जानकारी को सुधार लूँगा. मेरे लिए भी वह उपलब्धि होगी.
अब जो कुछ आपने पहली प्रस्तुति से प्राप्त किया है वह सटीक है. यही अर्थ है भी.
चौथी प्रस्तुति की जहाँ तक बात है.. तो ...... :-))))
आदरणीया, इनमें से किसी प्रस्तुति को खोलने का समय अभी नहीं आया है, यह सुधी पाठक स्वयं करेंगे. धैर्य रखें हम.
सादर
भाई मुकेशजी, रचना बाहर आते समाज की हो जाती है, पाठकों की हो जाती है. आप उस हिसाब से मेरे मंतव्य को लें. आपको प्रस्तुति रुचिकर लगी यही कर्म का प्रतिसाद है. आपने पूर्वसूचित किया इसके लिए धन्यवाद.
Saurabh jee - is sundar prastuti ke lye bahut bahtu badhaaee- kyaa mai is rachnaa ko SARTHAK NAVYA me chaap saktaa hoon ?
//ऐसी रचना केवल आपके कलम से ही झर सकती है,अनुपम प्रेमवृष्टि //
:-))))
जय हो... .
तीन चार बार पढ़ कर आपको प्रणाम प्रेषित करता हू, ऐसी रचना केवल आपके कलम से ही झर सकती है,अनुपम प्रेमवृष्टि सादर बधाई
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