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गैर जरूरी चीजें

तमाम गैर जरूरी चीजें 

गुम हो जाती हैं घर से चुपचाप 

हमारी बेखबर नज़रों से 

जैसे मम्मी का मोटा चश्मा 

पापा जी का छोटा रेडियो 

उन दोनों के जाने के बाद 

गुम हो जाता है कहीं 

पुराने जूते, फाउंटेन पेन, पुराना कल्याण 

हमारी जिंदगी की अंधी गलियों से .... 

हर जगह पैर फैलाकर कब्जा करती जाती है 

हमारी जरूरतें, लालसाए 

आलमारी में पीछे खिसकती जाती है 

पुरानी डायरी, जीते हुये कप 

मम्मी का भानमती का पिटारा 

सुयी धागे का डिब्बा 

शायद..... 

किसी भूले हुये पुरानी किताब मेँ

सहेज के रखें हों 

गुलाब के फूल, मोर के पंख 

तितली के पर 

बचपन की उम्र 

किसी कोने मेँ ओंधा लेटा हो 

रूठा हुआ, धूल भरा गंदे कपड़े का गुड्डा 

या अभी किसी किताबों के 

बीच रखे हों सुरक्षित 

मुहर लगे डाक टिकट, पुराने पत्र 

टाफियों के रेपर 

और पच्चीस पैसे का सिक्का .... 

इस भीड़ भाड़ के मेले मेँ 

एक एक करके सभी चीजें 

बिछड़ती जाती हैं 

हमसे ... 

बचपन के दोस्त , जीती हुयी क्रिकेट की गेंद 

लूटी हुयी पतंगे, चांदमामा की किताबें ..... 

मकानों के कंधे पर सवार 

टी0वी0 का एंटीना 

अब नहीं उलझता पतंग उड़ाने मेँ .... 

अब कोई नहीं देखता चंदा मामा को 

अब नहीं पसरती आँगन मेँ 

अलसाई ठंड की धूप 

धुंधले होते जाते हैं 

धीरे धीरे ये सारे चटख रंग .... 

सपनों के रंग बदलते जाते हैं 

एक एक करके 

बदलते मौसम के साथ 

बदलती जरूरतों के साथ 

और एक एक करके 

आँखों की दहलीज से बाहर 

चले जातें हैं 

सिर झुकाये 

गुजरते मौसम की तरह 

हम भूल जाते हैं 

वो लेमंचूस, खट्टी ईमली का चटपटा स्वाद ..... 

हमे घेर कर रखता है टी0वी0 का कर्कश शोर 

और हमारे सँकरे जीवन की कुंढी

बजा कर लौट जाती है 

न जाने कितनी पूनम की रातें 

पूरब की हवाएँ 

सुबह सुबह की भीगी औंस 

लाल घेरे मेँ कैद रहती है तारीख 

और बदल जातें हैं ये .... कैलेंडर .... 

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 768

Comment

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Comment by Satyanarayan Singh on May 29, 2014 at 9:46pm

एक अच्छी प्रस्तुति हेतु आदरणीय बधाई स्वीकार करें 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 20, 2014 at 3:20am

मुलायम भावों को शब्द मिला जा रहा है और कविता होती चली गयी है.  बहुत सुन्दर !

लेकिन यह भी है कि पढ़ने के क्रम में टंकण त्रुटियाँ कई बार लगी हैं. कृपया संयत रहें. आपके लिखे की प्रतीक्षा रहेगी.

शुभ-शुभ

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on May 5, 2014 at 9:05pm

सुन्दर कविता भाई अमोद जी !

Comment by Neeraj Neer on May 4, 2014 at 10:45am

बहुत ही सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना ... अपनी सुविधा, अपनी लालसा में हम कुछ जरूरी चीज़ों को गैर जरूरी मानकर पीछे कर देते है , शायद यही सत्य है, ऐसा ही होता आया है... आगे भी ऐसा ही होगा ... बहरहाल रचना के लिए आपको बधाई ..  

Comment by coontee mukerji on May 4, 2014 at 12:32am

तमाम गैर जरूरी चीजें 

गुम हो जाती हैं घर से चुपचाप 

हमारी बेखबर नज़रों से 

जैसे मम्मी का मोटा चश्मा 

पापा जी का छोटा रेडियो 

उन दोनों के जाने के बाद 

गुम हो जाता है कहीं 

पुराने जूते, फाउंटेन पेन, पुराना कल्याण 

हमारी जिंदगी की अंधी गलियों से .... ...कहाँ ले आये अमोद जी  आज भी बचपन की कुछ बातें मन में टीसती रहती है.

किसी भूले हुये पुरानी किताब मेँ

सहेज के रखें हों 

गुलाब के फूल, मोर के पंख 

तितली के पर 

बचपन की उम्र 

किसी कोने मेँ ओंधा लेटा हो 

रूठा हुआ, धूल भरा गंदे कपड़े का गुड्डा 

या अभी किसी किताबों के 

बीच रखे हों सुरक्षित 

मुहर लगे डाक टिकट, पुराने पत्र 

टाफियों के रेपर ........क्या भूलें क्या याद करें......आपकी यह बहुत ही सफ़ल रचना के लिये हार्दिक बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 3, 2014 at 12:22pm

यथार्थ चित्रण। हर चीज़ के दोनों पहलू होते हैं अच्छे और बुरे ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम इस्तेमाल किस तरह करते हैं। बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 3, 2014 at 11:18am

बहुत खूब.......भाई अमोध जी , हार्दिक बधाई .

Comment by Shyam Narain Verma on May 3, 2014 at 9:44am
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ....
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 3, 2014 at 3:47am

बहुत सुंदर रचना , सच! हमारे कल पर हमने आज का क्या फ्लेवर लगाया है . बधाई आदरणीय आमोद जी

Comment by annapurna bajpai on May 2, 2014 at 11:31pm

सुंदर रचना ।

कृपया ध्यान दे...

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