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छीन सकता है भला कोई किसी का क्या नसीब?
आज तक वैसा हुआ जैसा कि जिसका था नसीब।
माँ तो होती है सभी की, जो जगत के जीव हैं,
मातृ सुख किसको मिलेगा, ये मगर लिखता नसीब।
कर दे राजा को भिखारी और राजा रंक को,
अर्श से भी फर्श पर, लाकर बिठा देता नसीब।
बिन बहाए स्वेद पा लेता है कोई चंद्रमा,
तो कभी मेहनत को भी होता नहीं दाना नसीब।
दोष हो जाते बरी, निर्दोष बन जाते सज़ा,
छटपटाते मीन बन, जिनका हुआ काला नसीब।
दीप जल सबके लिए, पाता है केवल कालिमा,
पर जलाते जो उसे, पाते उजालों का नसीब।
‘कल्पना’ फिर द्वेष कैसा, दूसरों के भाग्य से,
क्यों न शुभ कर्मों से लिक्खें, हम स्वयं अपना नसीब।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीया कल्पना जी ।बहुत बहुत बधाई आपको। सादर
नसीब पर बहुत खूबसूरत अशआर कहें हैं आदरणीया कल्पना जी
हार्दिक बधाई
आदरणीय कल्पना दीदी
सुंदर ग़ज़ल हुई है..मुबारकबाद
आदरणीय कल्पना बहन , किस्मत पर लाजवाब ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई .
छीन सकता है भला कोई किसी का क्या नसीब?
आज तक वैसा हुआ जैसा कि जिसका था नसीब।.....सच कहा कल्पना जी सबका अपना अपना नसीब.....हार्दिक बधाई.
‘कल्पना’ फिर द्वेष कैसा, दूसरों के भाग्य से,
क्यों न शुभ कर्मों से लिक्खें, हम स्वयं अपना नसीब।
क्या बात है आदरणीया..बधाई ...
सुंदर भावों की सुंदर गजल … हार्दिक बधाई .................. |
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