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जिन्होंने रास्तों पर खुद कभी चलकर नहीं देखा
वही कहते हैं हमने मील का पत्थर नहीं देखा

.
मिलाकर हाँथ अक्सर मुस्कुराते हैं सियासतदाँ
छिपा क्या मुस्कराहट के कभी भीतर नहीं देखा
.

उन्हें गर्मी का अब होने लगवा अहसास शायद कुछ
कई दिन हो गए उनको लिए मफलर नहीं देखा
.

सड़क पर आ गई थी पूरी दिल्ली एक दिन लेकिन
बदायूं को तो अब तक मैंने सड़कों पर नहीं देखा
.

फ़क़त सुनकर तआर्रुफ़ हो गया कितना परेशां वो
अभी तो उसने मेरा कोई भी तेवर नहीं देखा
.

अभी तो बाबुओं ने ही उसे दौड़ा के रक्खा है
अभी तो उसने ढंग का एक भी अफसर नहीं देखा
.

ये जैसलमेर की जलती ज़मीं कुछ पूछती तुझसे
बता ऐ अब्र तूने क्यूं कभी मुड़कर नहीं देखा
.

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on September 23, 2017 at 9:48pm
आदरणीय राणा प्रताप सिंह जी,
मतले से मक़्ते तक इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली मुबारक़बाद,
Comment by Madan Mohan saxena on July 10, 2014 at 4:41pm

.
मिलाकर हाँथ अक्सर मुस्कुराते हैं सियासतदाँ
छिपा क्या मुस्कराहट के कभी भीतर नहीं देखा

अच्छी गज़ल के लिए बधाई।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 30, 2014 at 5:52pm

शानदार ....हालात को एक नई कसौटी पर कसती हुई ग़ज़ल के लिए बधाई 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 29, 2014 at 7:40pm

//उन्हें गर्मी का अब होने लगवा अहसास शायद कुछ
कई दिन हो गए उनको लिए मफलर नहीं देखा // टंकण त्रुटि है शायद। 

//फ़क़त सुनकर तआर्रुफ़ हो गया कितना परेशां वो 
अभी तो उसने मेरा कोई भी तेवर नहीं देखा // बहुत ही खूबसूरत शेर हुआ है।


कुल मिलाकर एक अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत हुई है, राणा जी दाद कुबूल करें।
Comment by कल्पना रामानी on June 16, 2014 at 7:53pm

खूबसूरत उम्दा गज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई।  अंतिम शेर बहुत पसंद आया

Comment by Zid on June 11, 2014 at 8:26pm

सोचते सोचते इस मुकाम पर पहुंचे हो
के ज़िद तूने अबतक पुख्ता इंसा नहीं देखा


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 9, 2014 at 7:13pm

हर शेर आजकी विसंगतियों को बखूबी साझा करता हुआ है. बदायूँ वाला शेर एकदम से मौजूं होने कारण लाजिमी है ध्यान खींचता है. अलबत्ता, बिम्बात्मक तो मफ़लर और जैसलमेर वाले शेर हुए हैं. ’तुझसे’ जैसे सर्वनाम के साथ संज्ञा ’अब्र’ को निभा जाना एकदम से मोह गया. 

इस शानदार ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकारें.

Comment by वीनस केसरी on June 9, 2014 at 4:25am

सड़क पर आ गई थी पूरी दिल्ली एक दिन लेकिन
बदायूं को तो अब तक मैंने सड़कों पर नहीं देखा ...

Comment by VISHAAL CHARCHCHIT on June 8, 2014 at 10:53pm

वाह - वाह - वाह - वाह........बेहद उम्दा गजल हुई है भाई.... खासकर ये शेर तो कमाल हो गया.........

अभी तो बाबुओं ने ही उसे दौड़ा के रक्खा है
अभी तो उसने ढंग का एक भी अफसर नहीं देखा

Comment by umesh katara on June 8, 2014 at 8:10am

हरिक शेर उम्दा है यथार्थ को खींचती गजल है वाहहहहहहहहहहहहहहहह हार्दिक अभिनंदन 

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