अहं के ताज़ को ……………
पूजा कहीं दिल से की जाती है
तो कहीं भय से की जाती है
कभी मन्नत के लिए की जाती है
तो कभी जन्नत के लिए की जाती है
कारण चाहे कुछ भी हो
ये निशिचित है
पूजा तो बस स्वयं के लिए की जाती है
कुछ पुष्प और अगरबती के बदले
हम प्रभु से जहां के सुख मांगते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
उसकी चौखट पे अपना सर झुकाते हैं
अपनी इच्छाओं पर
अपना अधिकार जताते हैं
इधर उधर देखकर
प्रभु के परम भक्त होने पर इतराते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
चन्द सिक्के दान कर
महा दानी बन जाते हैं
इस काया और माया पे
किसका अधिकार है
ये भी भूल जाते हैं
जानते हैं इस नश्वर संसार में
हर शै नाशवान है
फिर भी अपनी साँसों पे
कितना अभिमान है
मंदिर जाकर सर को झुकाकर
शायद भौतिक संतुष्टि तो हो जाएगी
मगर जब तक उसके दरबार में
अहं के ताज़ को तज कर सर न झुकायेंगे
न ईश हमें मिल पायेगा
न ईश के हम हो पायेंगे
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जब तक उसके दरबार में
अहं के ताज़ को तज कर सर न झुकायेंगे
न ईश हमें मिल पायेगा
न ईश के हम हो पायेंगे... बहुत ही सुन्दर! अनुकरणीय!
एक स्वार्थ निहित मानव सच्चाई को बहुत सुन्दरता से रचना में उभारा है और अंत तो बहुत ही नेक सन्देश सुना रहा है
मगर जब तक उसके दरबार में
अहं के ताज़ को तज कर सर न झुकायेंगे
न ईश हमें मिल पायेगा
न ईश के हम हो पायेंगे...सच बहुत सुन्दर पंक्तिया
आपको इस सार्थक रचना हेतु बहुत बहुत बधाई आ० सुशील सरना जी
मंदिर जाकर सर को झुकाकर
शायद भौतिक संतुष्टि तो हो जाएगी
मगर जब तक उसके दरबार में
अहं के ताज़ को तज कर सर न झुकायेंगे
न ईश हमें मिल पायेगा
न ईश के हम हो पायेंगे.....................बहुत सुंदर प्रस्तुति .. बधाई , सादर
आदरणीय i क्या बात है सरना जी i मै जब भी आपको पढता हूँ i कुछ नया पाता हूँ i न ईश हमें मिल पायेगाi न ईश के हम हो पाएंगे i लाजवाब i आपके विचार संगठित है i बधाई स्वीकार करे i
बहुत सुन्दर प्रस्तुति आ० भाई सुशील जी , कोटि कोटि बधाई स्वीकारें .
पूजा कहीं दिल से की जाती है
तो कहीं भय से की जाती है
कभी मन्नत के लिए की जाती है
तो कभी जन्नत के लिए की जाती है
कारण चाहे कुछ भी हो
ये निशिचित है
पूजा तो बस स्वयं के लिए की जाती है......बहुत सुंदर.
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