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एक भी उम्मीद उन से तुम न पालो दोस्तो
रास्ता इन बीहड़ों में खुद बना लो दोस्तो
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बंद दरवाजे जो दस्तक से नहीं खुलते कभी
इंतजारी से तो अच्छा तोड़ डालो दोस्तो
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फुसफुसाहट नफरतों की तेज फिर होने लगी
प्यार का परचम दुबारा तुम उठा लो दोस्तो
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होश में तो कह रहे थे ‘साथ हम तेरे खड़े’
गिर रहा मदहोशियों में अब सॅभालो दोस्तो
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मौत से बढ़कर पहेली जिंदगी हमको लगी
हल पहेली का तो कोई तुम निकालो दोस्तो
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करके कद छोटा किसी का तो बडे़ होते नहीं
वास्ते इसके स्वयं का कद बढ़ा लो दोस्तो
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(रचना-१५ जून २०१४)
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मौलिक और अप्रकाशित
( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )
Comment
आ0 भाई विजय शंकर जी रचना का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय लक्ष्मण भाई , पूरी ग़ज़ल बहुत खूबसूरत कही है , हर शे र काबिले दाद है , दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ॥
अजगुत , अद्भुत , अद्वितीय , अविस्मरणीय i
धामी जी आपकी कलम को नमस्कार i
मौत से बढ़कर पहेली जिंदगी हमको लगी
हल पहेली का तो कोई तुम निकालो दोस्तो...........बहुत ही खूब कहा, लाजवाब
हरेक शेर बेहतरीन आदरणीय लक्ष्मण जी, दिली बधाइयाँ स्वीकारें
आत्मविश्वास जगाती सार्थक ग़ज़ल कही है लक्ष्मण धामी भैय्या ,बहुत खूब हार्दिक बधाई प्राप्त करें
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