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कोई खामोश, मेरा हम ज़बाँ है
बड़ी चुप सी ,मेरी हर दास्ताँ है
कोई अब साथ आये या न आये
अकेलेपन से मेरा कारवाँ है
कहीं है आदमी में उस्तवारी
कहीं हर शख़्स लगता नातवाँ है
ये मीठी झिड़कियाँ ज़ारी हैं जब तक
तभी तक कोई रिश्ता दरमियाँ है
यहाँ कब ज़िन्दगी हरदम है जीती
यहाँ तो मौत ही बस जाविदाँ है
दिया बाती कहीं से खोज लाओ
उजाला चंद पल का मेहमाँ है
ज़मी से दूब सा रिश्ता हमारा
हुआ क्या? अब ज़मीं से आसमाँ है
तेरी यादों की ठंडक से लगा यूँ
कोई कश्ती नदी में ज्यूँ रवाँ है
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उस्तवारी = मज़बूती , नातवाँ = कमज़ोर , जाविदाँ = अमर
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥
आदरणीय अभिनव अरुण भाई , आपको कुछ अशाअर पसंद आये , गज़ल कहना सफल हो गया । आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीया गीतिका की , सराहना कर उत्साह वर्धन के लिये आपका दिली शुक्रिया ॥
आदरणीया राजेश जी , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
मित्र
बहुत सुन्दर गजल i लाजवाब मक्ता i बहुत बहुत बधाई i
कोई अब साथ आये या न आये
अकेलेपन से मेरा कारवाँ है.............सच ही तो है, कहाँ..? कब..? किस पर...? पर यकीं किया जाय
यहाँ कब ज़िन्दगी हरदम है जीती
यहाँ तो मौत ही बस जाविदाँ है...........यही यथार्थ है
दिया बाती कहीं से खोज लाओ
उजाला चंद पल का मेहमाँ है.........पंछी भी पुराना पेड़ छोड़ जाते है
गजल में भाव बहुत ही सुन्दरता से उभर कर आये है, यह आपकी अनुभवी लेखनी का कमाल है. ह्रदय से बधाइयाँ आपको आदरणीय गिरिराज जी
वाह क्या बात है आदरणीय गिरिराज सर बहुत बहुत बधाई
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