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पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
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जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
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रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है
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सिर्फ दौलत को यहाँ पर रोज भगदड़ है मची
प्यार की खातिर मनों को छानता अब कौन है
***
सबको मंजिल की ‘मुसाफिर’ है तलब तो खूब पर
पाक राहें भी रहें ये ठानता अब कौन है
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(रचना- 25 मई 2012)
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ0 भाई सौरभ जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .
आ0 प्राची बहन , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार .
सबको मंजिल की ‘मुसाफिर’ है तलब तो खूब पर
पाक राहें भी रहें ये ठानता अब कौन है ..
वाह !
शुभ-शुभ
बढ़िया अशआर कहे हैं आ० लक्ष्मण धामी जी
रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है.....सही कहा
हार्दिक बधाई
आदरणीय भाईअरुन शर्मा जी , गजल की प्रशंसा कर उत्साह वर्धन के लिए दिली धन्यवाद ।
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है आपने लक्ष्मण भाई मजा आ गया बधाई स्वीकारें.
आदरणीय भाई नादिर खान जी , असआरों की प्रशंसाकर उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । स्नेह बनाए रखें ।
आ0 अनुपमा बहन , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई जवाहरलाल जी आपको गजल अच्छी लगी यह मेरे लिए सौभग्य की बात है । आप सभी का स्नेह निरंतर लिखने की प्रेरणा देता रहता है । धन्यवाद ।
आदरणीय भाई नरेन्द्र जी , उत्साहवर्धन के लिए कोटि कोटि आभार ।
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