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ताज़ा लहू के सुर्ख़ निशाँ छोड़ आया हूँ
हर गाम एक किस्सा रवाँ छोड़ आया हूँ
वो रोज़ था, मुझे न मयस्सर ज़मीं हुई
ये हाल है कि अब मैं जहाँ छोड़ आया हूँ
परदेस में लगे न मेरा मन किसी तरह
बच्चों के पास मैं दिलो-जाँ छोड़ आया हूँ
उड़ती हुई वो ख़ाक हवाओं में सिम्त-सिम्त
जलता हुआ दयार धुआँ छोड़ आया हूँ दयार= मकान
मौजूदगी को मेरी तरसते थे रास्ते
चलते हुये उन्हें मैं कहाँ छोड़ आया हूँ
दुश्वारियाँ सफर में बहुत हैं ''शकूर'' पर
मैं हौसलों के दम पे अमाँ छोड़ आया हूँ अमाँ= सुरक्षा
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय शिज्जू साहब यह एक बहुत ही बेह्तरीन आला दर्ज़े की गज़ल हुई है, इस पर तहे दिल से दाद कबूल करें ।
ख़ूबसूरत ग़ज़ल
आदरणीया डॉ प्राची जी रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
आदरणीय सौरभ सर हौसला अफ्ज़ाई का शुक्रिया स्नेह बना रहे।
सादर,
आदरणीय करुण सर आपका हार्दिक आभार
आदरणीय डॉ आशुतोष सर आपका हार्दिक आभार
बहुत शानदार अशआर कहे हैं आ० शिज्जू जी
दुश्वारियाँ सफर में बहुत हैं ''शकूर'' पर
मैं हौसलों के दम पे अमाँ छोड़ आया हूँ....बहुत सुन्दर
हार्दिक बधाई
ग़ज़ल अच्छी हुई है .. दाद कुबूल कीजिये शिज्जू भाई.
aadarneey jee is behtareen ghazal ke liye tahe dil badhaaayee saadar
शिज्जू जी, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ |
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