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हाँ..! यही सच है (अतुकांत)

मन की...

तपती धरा पर

कुछ  बूंदें  ही बारिश की

यूँ पड़ी..

न कोई राहत ,न ही सौंधी सी महक

सिर्फ बेचैनी और उमस

कहीं संवेदनाओं की मिट्टी

पत्थर तो नहीं हो गई

 

या वर्ष भर के

लम्बे विरह से

मिलन की ,भूख-प्यास चाहती हो

खूब टूट-टूट कर 

बरसें   ये बादल

हाँ..! यही सच है

शायद..

मन भी यही चाहता है.

जितेन्द्र’गीत’

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 10:43pm

आपका ह्रदय से आभार आदरणीय शुशील जी

सादर!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 1:29pm

मेरे इस नाम के साथ, रचना पर आपके आशीर्वाद से बहुत अपनापन मिला आदरणीय डा. गोपाल जी, अपना स्नेहिल आशीर्वाद युहीं बनाये रखियेगा

सादर !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 1:27pm

रचना पर आपका स्नेह , मुझे हमेशा सम्बल देता है आदरणीया राजेश दीदी .अपना स्नेह व् आशीर्वाद बनाये रखियेगा
सादर !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 1:23pm

आप काफी हद तक सही ही कह रहे है आदरणीय जवाहर जी, रचना पर आपकी उपस्थिति हेतु आपका ह्रदय से आभार

सादर !

Comment by Sushil Sarna on June 30, 2014 at 1:23pm

आंतरिक मनोभावों का सुंदर चित्रण  करती इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय जितेन्द्र गीत जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 1:20pm

रचना के भाव ने आपके मन को छुआ, लेखनकर्म सार्थक हुआ आदरणीय डा विजय जी. स्नेह बनाये रखियेगा
सादर !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 30, 2014 at 1:17pm

रचना पर आपकी उपस्थिति हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीया माहेश्वरी जी

सादर !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 30, 2014 at 11:37am

जीतू जी

बहुत ही अच्छे भाव है i  आपने कम शब्दों में बड़ी बात कही i 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 30, 2014 at 10:23am

मन के भाव को कितने सुन्दर शब्दों से पिरोया है इस रचना में ....बहुत ज्यादा पसंद आई ये रचना |

हार्दिक बधाई जितेन्द्र भैय्या |

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 29, 2014 at 8:01pm

कहीं संवेदनाओं की मिट्टी

पत्थर तो नहीं हो गई

आज हम सभी पाषाण हो गए है… संवेदना बची ही नही आदरणीय जितेंद्र जी!

कृपया ध्यान दे...

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