हम क्यों खोजते है
सच को
बार बार?
कस्तूरी के
मृग की तरह
वो तो सदा
हमारे बीच
ही रहता है.
हम उसे रोज
देखते है
सुनते हैं
सूंघते हैं
पर अंजान बन
उंघते है.
अगर हमने
मान लिया
हम सच जानते है
तो लोग हमें
झूठा कहेंगे
क्योंकि वो भी
कस्तूरी गंध के
सच को जानते है.
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अति सुंदर, संदेशप्रद प्रस्तुति. हार्दिक बधाई आपको आदरणीय विजय जी
आ0 भाई विजय प्रकाश जी इस बेहतरीरन भावप्रधान रचना के लिए हार्दिक बधाई कबूलें ।
आ० लक्ष्मण जी,आ० गोपाल नारायणजी,आ० विजय शॅंकर जी, आ० राजेश कुमारी जी,
पहले मैं आप सबका अभिनंदन करता हूँ,आपने इतनी बारीकी से रचना को देखा. आप सबों की सराहना हमेशा हौसलाफजाई करती है. बहुत -बहुत आभार.
बहुत सुन्दर रचना ..चंद शब्दों में बहुत गंभीर बात कह गई ,बधाई आपको आ० विजय प्रकाश शर्मा जी |
विजय प्रकाश जी
आपने सच की सच्चाई पर बड़े कलात्मक ढंग से प्रकाश डाला i बहुत बेहतरीन i मै एहतराम करता हूँ i
सत्य को स्वीकारे करने का सन्देश देती सुन्दर रचना के लिए बधाई
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