वह दोस्तों के साथ मूवी देखकर और लंच करके लौटी थीं | घर में घुसते ही माँ ने कहा:
"अरे शर्मा अंकल आए हैं, ड्राइंग रूम में जा के नमस्ते तो कर ले |"
"ठीक है माँ, मिल लेती हूँ जा के , जरा दुपट्टा तो डाल लूँ |"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आभार सौरभजी , मैंने प्रयास किया था , कितना सफल हुआ आप लोग ही बताएँगे..
भावुक हुए मन के लिए तो खुराक मिल गयी लेकिन चैतन्य मन कुछ और विन्दुओं पर स्पष्टता चाहता है. शुभ्रांशु भाई ने तथ्यात्मक विन्दु उठाये हैं, आदरणीय.
बहरहाल इस प्रस्तुति पर आपको अनेकानेक बधाइयाँ. आपकी प्रस्तुतियों की प्रतीक्षा रहेगी.
शुभ-शुभ
आभार जितेंद्रजी , उत्साह बढ़ाने के लिए..
महज कुछ ही शब्दों में लघुकथा बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है, बहुत ही बढ़िया लघुकथा आदरणीय विनय जी. यहाँ इस लघुकथा में पाठक अपनी सोच को जहाँ तक ले जाए, ले जा सकता है.
आपको बहुत बहुत बधाई
आभार सुशील सरनाजी |
वर्तमान को जीती एक दिल को छूती लघु कथा .... इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आरणीय विनय कुमार सिंह जी
आभार रवि प्रभाकरजी , इसी तरह मार्गदर्शन देते रहिये..
जरा दुपट्टा तो डाल लूँ।
सारी लघुकथा का सार सिर्फ इन पांच शब्दों में ही है। बहुत अच्छी लघुकथा कह गए आप। शिल्पकारी के लिहाज से भी एकदम उत्तम प्रस्तुति। इस लघुकथा का शीर्षक एकदम स्टीक। कुल मिला कर लघुकथा के मानदंडों पर एकदम खरी उतरती एक शानदार लघुकथा। बधाई स्वीकार कर कृतार्थ करें।
आभार शिज्जु जी एवम सुभ्रांशुजी , अपने बड़ी बारीकी से विश्लेषण किया है | दरअसल माता पिता अपने समकक्ष लोगों को अलग नज़र से देखते हैं लेकिन बच्चियां तो अपने ऊपर पड़ने वाली नज़रों को ताड़ लेती हैं , बस यही कहने का प्रयत्न किया है मैंने |
आदरणीय विनय जी,
कथा के विषय को ले कर थोडी़ उहापोह है...जैसे कथा आगे बढती है और समझ में आती है, उसमें और आ. राजेश कुमारी जी और डा गोपाल जी के विचार और फ़िर उस पर आपके अनुमोदन ने कथा के अलग प्रवाह को बताया है...
अगर चचा जान ऎसे हैं तो कोई माता अपनी पुत्री को पहले आगाह करेगी ना कि पुत्री को पहल करनी पडे़गी...माता ऎसे लोगों से मिलने देने से ही परहेज करवायेगी..लेकिन अगर कथाकार कि मंशा ऎसी ही है तो कत्थ्यों को बदलने से आशय ज्यादा स्पष्ट होगा.
सादर.
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